Saturday, May 4, 2013

भारतीय इतिहास


भारतीय इतिहास
अध्याय - पुराऐतिहासिक संस्कृतियां
अभिलेखः अभिलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण साक्ष्य माने जाते हैं। सम्राट अशोक के अभिलेख सर्वाधिक प्राचीन माने जाते हैं। अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राăी लिपि में, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान से प्राप्त अभिलेख अरमाइक एवं युनानी लिपि में है। मास्की, गुर्जरा तथा पानगुडइया के अभिलेख में अशोक के नाम का उल्लेख है। अभिलेखों में अशोक को प्रियदर्शी तथा देवताओं का प्रिय कहा गया है। अशोक के सभी अभिलेखों का विषय प्रशासनिक है परंतु रूम्नदेई अभिलेख का विषय आर्थिक है। गुप्त शासकों का इतिहास अधिकतर उनके अभिलेखों के आčाार पर लिखा गया है। प्रशस्ति अभिलेखों में प्रसिद्ध है, रूद्रदामन का गिरनार अभिलेख, खारवेल का हाथी गुफा अभिलेख, समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति, सातवाहन राजा पुलुमावी का नासिक गुफालेख आदि। यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर से प्राप्त गरूड़ स्तंभ अभिलेख से द्वितीय सदी ई. पूर्व के मध्य भारत में भागवत čार्म के मौजूद होने का प्रमाण मिलता है। मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त अभिलेख से गुप्तकाल में सती प्रथा की जानकारी प्राप्त होती है। गुप्तकालीन उद्यागिरि स्थित वराह की मूर्ति पर हूण शासक तोरमाण का लेख अंकित है।
विदेशी अभिलेखः विदेशी अभिलेखों में सबसे पुराना अभिलेख 1400 ई.पू. का है तथा एशिया माइनर में बोगजकोईसे प्राप्त हुआ है। इसमें वरूण, मित्रा, इन्द्र तथा नासत्य देवताओं का नामोल्लेख है। पर्सिपोलिस तथा बेहिस्तून अभिलेखों से ज्ञात हुआ है कि ईरानी सम्राट द्वारा प्रथम ने 516 ई.पू. में सिन्धू नदी घाटी के क्षेत्रा पर अčिाकार कर लिया था। मिस्र में तेलुवल अमनों में मिęी की तख्तियां मिली हैं जिन पर बेबीलोनिया के कुछ शासकों के नाम उत्कीर्ण हैं जो ईरानी एवं भारत के आर्यशासकों के नाम जैसे हैं।
मूर्तिकलाः मौर्यकाल में निर्मित विभिन्न मूर्तियां जैसे ग्वालियर की मणिभद्र की मूर्ति, धौली का हाथी, परखम का यक्ष तथा दीदारगंज की यक्षणी आदि प्रसिद्ध कलात्मक पुरातात्विक साक्ष्य है। गंधार कला तथा मथुरा कला के कनिष्क की सिर विहीन मूर्ति से तत्कालीन वň विन्यास की जानकारी प्राप्त होती है।
मुद्रायेः सन् 206 ई. से 300 ई. तक का भारतीय इतिहास का ज्ञान मुख्यतया मुद्राओं पर आधारित है प्राचीन भारत में सोना, चांदी, तांबा, सीसा तथा पोटीन के बने सिक्के प्रचलित थे। यद्यपि भारत में सिक्कों की प्राचीनता का स्तर आठवीं शती ई.पू. तक है परन्तु नियमित सिक्के छठी सदी ई.पू. से ही प्रचलन में आये। प्राचीनतम सिक्को को आहत सिक्केकहा जाता है। साहित्य में इन्हें कर्षापणकहा गया है। ये अधिकांशतः चांदी के हैं जिन पर ठप्पा लगाकर विविध आकृतियां उकेरी गई हैं। हिन्द-बैक्टिरीयाई शासकों ने सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख अंकित करवाया। लेखों से संबंधित राजा के विषय में महत्वपूर्ण सूचना प्राप्त होती है।
सबसे अधिक तांबे, चांदी व सोने के सिक्के मोर्योत्तर युग के है। मुद्राओं की सहायता से संबंधित काल के धार्मिक विश्वास, कला, शासन पद्धति तथा विजय अभियान का ज्ञान प्राप्त होता है। कनिष्क की मुद्राओं से उसके बौद्ध धर्म के अनुयायी होने का पता चलता है। शक-पहलव युग की मुद्राओं से उनकी शासन पद्धति का ज्ञान होता है। स्कन्द्गुप्त की मुद्राओं में सम्मिश्रित स्वर्ण मिलता है जिससे तात्कालिक आंतरिक अशांति तथा कमजोर आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है। कुषाण काल की स्वर्ण मुद्रायें सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्रायें थीं। गुप्तकाल में सर्वाधिक सोन के सिक्के जारी किये गये।
स्मारक एवं भवनः तक्षशिला से प्राप्त स्मारकों से कुषाण वंश के शासकों तथा गंधारकालीन कला की जानकारी प्राप्त होती है। भारतीय इतिहास से संबंधित कुछ विदेशी स्मारक भी प्रकाश में आये हैं। जैसे- कंबोडिया के अंकोरवाट का मन्दिर, जावा का बोरोबुदूर मन्दिर आदि।
भूमिदान पत्राः ये प्रायः तांबे की चादरों पर उत्कीर्ण हैं तथा शासकों अथवा सामंतों द्वारा दिये दान अथवा निर्देश के लेखपत्रा है। दक्षिण भारत के चोल, चालुक्य, राष्टŞकूट, पाण्ड्य तथा पल्लव वंश का इतिहास लिखने में ये उपयोगी हैं।
चित्राकलाः चित्राकला तात्कालीन समाज की उन्नति तथा अवनति के द्योतक होते हैं।
साहित्यिक स्त्रोत:
वैदिक साहित्यः वैदिक साहित्य के अन्तर्गत वेद, वेदांग, उपनिषद्, पुराण, स्मृति, धर्मशास्त्रा आदि आते हैं। अथर्ववेद में अंग एवं मगध महाजनपद का उल्लेख है। आर्यों द्वारा अनार्यों की संस्कृतियों को अपनाने का भी उल्लेख है। मत्स्य पुराण में सातवाहन वंश के विषय में जानकारी मिलती है तथा मत्स्य पुराण सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक पुराण है। विष्णु पुराण से मौर्य वंश एवं गुप्त वंश की जानकारी प्राप्त होती है। वायु पुराण से शुंग एवं गुप्त वशं की विशेष जानकारी मिलती है। संस्कृत में लिखित बौद्ध ग्रन्थ महावस्तु तथा ललित विस्तार में महात्मा बुद्ध के जीवन चरित का उल्लेख है। द्व्यिावदान में परवर्ती मौर्य शासकों एवं शंगु राजा पुष्यमित्रा शंगु का उल्लेख मिलता है। परिशिष्ट पर्वन नामक जैन ग्रंथ से ज्ञात होता है कि मौर्य शासक चन्द्रगुप्त अपने जीवन के अंतिम काल में जैन धर्म को अपना लिया था एवं श्रवणबेलगोला में रहकर उपवास द्वारा प्राण त्याग दिया था। जैन ग्रंथ भगवती सूत्रा से तत्कालीन 16 महाजनपदों के अस्तित्व का पता चलता है। भद्रबाहुचरित् से चंद्रगुप्त मौर्य के राज्य काल की घटनाओं पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का आरंभ:
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के इतिहास का आरंभ पाषाण काल से हुआ। पाषाण काल को मानव सभ्यता का आरंभिक काल भी माना जाता है। इतिहास की जानकारी के साधनों के आधार पर ऐतिहासिक काल को तीन प्रकार के नाम दिये गये हैं- प्रागैतिहासिक काल, आद्य-ऐतिहासिक काल तथा ऐतिहासिक काल। प्रागैतिहासिक कालमें लेखन कला का विकास नहीं हुआ था। उस काल को जानकारी के स्त्रोत पाषाण उपकरण जैसे पुरातात्विक साक्ष्य हैं। आद्य-ऐतिहासिक कालमें लेखन कला का विकास तो हो गया था परंतु अभी तक अपठनीय हैं। सिंधु घाटी सभ्यता की कालावधि को आद्य-ऐतिहासिक कालकी संज्ञा दी जाती है। ऐतिहासिक कालउस काल को कहते है जिसके लेख पठनीय हैं।
प्रागैतिहासिक संस्कृतियां 
प्रागैतिहासिक काल को पाषाण काल भी कहा जाता है क्योंकि उस काल के सभी पुरातात्विक साक्ष्य पाषाण निर्मित हैं। इसे तीन कालों में बांटा गया हैं- पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल, नवपाषाण काल।
पुरापाषाण कालः पाषाण काल का आरंभिक काल पुरापाषाण काल के नाम से जाना जाता है। भारत में सर्वप्रथम 1863 ई. में एक विद्वान रार्बट ब्रुस फुट ने पल्लावरम् (मद्रास) से पाषाण निर्मित साक्ष्य प्राप्त किया था। 1935 ई. में डी. टेरा तथा पीटरसन ने शिवालिक पहाड़ियों से महत्वपूर्ण पाषाण उपकरण प्राप्त किये। पुरापाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है- निम्न-पुरापाषाण काल, मध्य-पाषाण काल, उत्तर-पुरापाषाण काल।













सैंधव काल में विदेशी व्यापार:

निम्न-पुरापाषाण कालः इस काल के पाषाण-उपकरण सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान के पंजाब प्रांत), सिंगरौली घाटी (उ.प्र.), छोटानागपुर, नर्मदा घाटी तथा समस्त भारत (सिंध एवं केरल को छोड़कर) में पाये गये हैं। मुख्य उपकरण- शल्क, गंडासा, खंडक उपकरण, हस्तकुठार और चाटिकाश्म। नर्मदा घाटी में होमोइरेक्टस के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस काल को सोहन संस्कृति, चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति तथा हेडएक्स संस्कृति भी कहा जाता है। इस काल में उपकरणों के अतिरिक्त हाथी, जंगली भैंसा, दरियाई घोड़ा आदि के जीवाश्म भी पाये गये है। इस काल का मानव जानवरों का शिकार करता था तथा कन्दराओं में जानवरों की तरह रहा करता था। नर्मदा घाटी में हथनीर नामक ग्राम से एक मानव खोपड़ी भी मिली है, यह लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुरानी है। यह भारत में अब तक प्राप्त मनुष्य का सबसे पुराना अवशेष है।
मध्य-पुरापाषाण कालः इस काल में सिंध (पाकिस्तान), केरल और नेपाल को छोड़कर भारत के प्रायः सभी प्रांतों में मनुष्यों के अस्तित्व के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। मुख्य स्थल- नेवासा (महाराष्ट), डीडवाना (राजस्थान), भीमवेटका, नर्मदा घाटी, पुरूलिया (प. बंगाल), तुंगभद्रा नदी घाटी। इस काल के मुख्य औजार थे- बेधक, खुरचनी, वेधनियां। भीमबेतका के 200 से अधिक चęानी गुफाओं से इस काल के लोगों के रहने के साक्ष्य मिले हैं। यह नर्थडरथाल मानवों का युग था।
उच्च-पुरापाषाण काल: इस काल के मुख्य औजार थे- तक्षणी, फलक, खुरचनी। निवास स्थान- रेनीगुंटा तथा कुरनूल (आंध्रप्रदेश), शोलापुर और बीजापुर। अस्थि उपकरण- अलंकृत छड़ें, मत्स्य भाला (हार्पून), नोकदार सुइयां। बेलनघाटी से शुद्ध फलक उद्योग के अवशेष प्राप्त हुए हैं। रेनीगुंटा से फलकों व तक्षणियों का एक विशाल संग्रह मिला है। कुरनूल से हěी के उपकरण मिले हैं। भीमबेतका की गुफाओं में चित्राकारी में हरे तथा गहरे लाल रंग का उपयोग हुआ है।
मध्य-पाषाण काल: मुख्य स्थल- बगोर, पंचपद्र घाटी एवं सांजत (राजस्थान), लंघनाज (गुजरात), अक्खज, बलमाना, विन्ध्य व सतपुरा के क्षेत्रा, आदमगढ़, भीमवेतका, वीरभानपुर (प. बंगाल), कर्नाटक के संगनकल्ल तथा उ.प्र. का सरायनाहर राय, लेखहीमा, मोरहाना पहाड़। मुख्य उपकरण- लघु पाषाण (माइŘोलिथ) से बने औजार जैसे ब्लेड, अर्धचन्द्राकार उपकरण, इकधार फलक वाले औजार, त्रिकोण, नवचंद्रकार तथा समलंब औजार, नुकीला औजार। इस काल के लोग अंत्येष्टि Řिया से परिचित थे। मानव अस्थियों के साथ कुŮो की भी अस्थियां मिली है। पंचमढ़ी में महादेव पहाड़ियों में मध्य पाषाण युग के शैलाश्रय मिले है।
नव-पाषाण काल: मुख्य स्थल- आदमगढ़, चिराˇद (बिहार), ब्लूचिस्तान, उ.प्र. का बेलन घाटी, बृजहोम व गुफ्फकराल (कश्मीर), मेहरगढ़, पं. बंगाल, प्रायद्वीपीय भारत, कोटदीजी आदि। मुख्य औजार- पालिश किये हुए पत्थर के औजार, पत्थर की कुल्हाड़ी, छोटे पत्थर के औजार व हěी के औजार। मुख्य विशेषताएं- कृषि कार्य का आरंभ, पशुपालन आरंभ, मृदभांड का निर्माण, कपड़ा बुनाई, आग से भोजन पकाना, मनुष्य स्थायी निवासी बन गया, खर एवं बांस की झोपड़ी बनाया जाने लगा, नाव का निर्माण। चिरांद और सेनआर नामक स्थान हěी के उपकरण के लिए प्रसिद्ध हैं। बेलनघाटी (उ.प्र.) से चावल का साक्ष्य, मेहरगढ़ (7000ई.पू.) से सर्वप्रथम कृषि का साक्ष्य, आदमगढ़ और बागोर (5000 ई. पू.) से प्राचीनतम पशुपालन के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। बुर्जहोम के निवासी मृदभांडों का प्रयोग करते थे।

ताम्र-पाषाण काल
मानव जीवन में सर्वप्रथम जिस घातु का प्रयोग किया गया, वह तांबा (लगभग पांच हजार ई.पू.) था। मुख्य ताम्र-पाषाण संस्कृतियां निम्न थे- अहाड़ एवं गिलुंद (द.पू. राजस्थान की बनास घाटी), कायथा (म.प्र.), गिलुद (अहमदनगर, महाराष्ट्र), मालवा संस्कृति। सभी ताम्र-पाषाण संस्कृतियों में मालवा मृदभांड सबसे उत्कृष्ट पाया गया है। मुख्य स्थल- प. बंगाल, पोडू राजार, ढ़िबी व वीरभूमि, महिषादल। बिहार में सेवार, चिरांद, ताराडींह तथा उ.प्र. में रैवराडीह व नौहान। इस संस्कृति के लोग ताम्र एवं पत्थर के छोटे-छोटे औजारों व हथियारों का प्रयोग करते थे, जैसे- फलक, फलकियां। जोरवे संस्कृति के मुख्य स्थल थे- जोरवे, नेवासा, दैमाबाद, चंदोली, सोनेगांव, इनामगांव, प्रकाश व नासिक। अहाड़के पुराना नाम ताम्ववती’ (यानि तांबे वाली जगह) था। यहां पर काले-लाल रंग के मृदभांडों का प्रयोग होता था। पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं होता था। लोग पत्थर के घरों में रहते थे। सोथी संस्कृति (राजस्थान) घग्घर घाटी के क्षेत्रों में फैली थी।
केरल में पत्थर की चट्टानों में शव दफनाने के साक्ष्य मिले है। द. भारत के ब्रह्मगिरि, पिकलीहल, संगानाकालू, मास्की, हल्लूर आदि से ताम्र-पाषाण युगीन तथा लौह युगीन बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं।
प्रागैतिहासिक संस्कृतियां:



प्रागैतिहासिक पुरातात्विक साक्ष्य:

चित्रित मृदभांडों का सबसे पहले ताम्र पाषाणीय लोगों ने ही प्रयोग किया। ताम्र पाषाण कालीन लोगों ने प्रायद्वीपीय भारत में सबसे पहले बड़े-बड़े गांव बसाये। इस संस्कृति के स्थलों से हल या फावड़ा नहीं मिला है। कृषि, खंतियों के सहारे करते थे। मालवा से प्राप्त चरखे-तकलियों से ज्ञात होता है कि लोग कताई-बुनाई से परिचित थे। इनामगांव से चूल्हों सहित कच्ची मिट्टी वाले गोलाकार घर मिले हैं। महाराष्ट्र में लोग मृतकों को फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण भाग में पूर्व-पश्चिम दिशा में दफनाते थे।







अध्याय - सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता का अविर्भाव ताम्रपाषाणिक पृष्ठभूमि पर भरतीय महाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। कालानुक्रम- पूर्व हड़प्पा सभ्यता (5500ई. पू.-2500 ई.पू.), आरंभिक हड़प्पा सभ्यता (3500 ई.पू.- 2500 ई.पू.), विकसित हड़प्पा सभ्यता(2500 ई.र्पू.-1750ई.पू.), उत्तर हड़प्पा सभ्यता (1750 ई. से आगे)। चाल्र्स मैस्सन ने 1826 ई. में हड़प्पा टीले का सर्वप्रथम उल्लेख किया तथा इसका रहस्योद्घाटन 1856 ई. में करांची और लाहौर के बीच पटरी बिछाने के दौरान हुआ जब विलियम ब्रन्टन तथा जान ब्रन्टन ने दो प्राचीन नगरों का पता लगाया।
आरंभिक काल:
सिंधु घाटी के किलीगुल मोहम्मद एवं मंुडीगाक, अफगानिस्तान व ब्लूचिस्तान में तीन हजार ई.पू. के मध्य में अनेक गांव बस गये जहां सैधंव सभ्यता के आरंभिक काल का बीजारोपण हुआ। आरंभिक काल की प्रमुख संस्कृतियां निम्न हैं-
कुल्ली संस्कृति के मुख्य स्थल मेही, रोजी व मजेरा दंब आदि हैं। यहां से प्राप्त मृद्भांड का रंग पांडु-गुलाबी है। यहां से अत्यधिक अलंकृत नारी मृण्मूर्तियां, तांबे का दर्पण, बेलनाकार छिद्रित पात्रा प्राप्त हुए हैं। नाल संस्कृति का मुख्य स्थान दक्षिणी बलूचिस्तान था। यहां से मिट्टी के ईंटों के मकान, सांप दबाये गरूड़ के चित्रा वाला मुहर, बाट आदि प्राप्त हुए हैं। झाब संस्कृतिइसके मुख्य स्थल मुगल घुंडई, राना घुंडई, डाबरकोट, परिआनों घंुडई थे। यहां के मृदभांड पर लाल पर काले रंग के अलंकरण है। यहां से मिट्टी के ईंटों को मकान शवदाह-कर्म के संकेत व नारी मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। मुगल घंडई से किलेबंदी के साक्ष्य, पाषाण लिंग, वृषभ की मूर्ति आदि मिले हैं। क्वेटा संस्कृतिके मुख्य स्थल दंब सादात व किलीगुल मुहम्मद हैं। इसक संस्कृति पर ईरानी प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां के मृद्भांड गुलाबी सफेद हैं जिस पर काले रंग का अलंकरण है।
विकसित सैंधव सभ्यता:
भौगोलिक रूप-रेखा सैंधव सभ्यता की क्षेत्राकृति त्रिभुजाकार है तथा क्षेत्राफल 1299600 वर्ग किमी. है। इसकी उत्तरी सीमा जम्मू (मांडा), दक्षिणी सीम नर्मदा के मुहाने भगतराव, पूर्वी सीमा आलमगीरपुर (उ.प्र.) तथा पश्चिमी सीमा ब्लूचिस्तान के मकरान-सुत्कागेंडोर तक थी। यह उत्तर से दक्षिण तक 1100 किमी. तथा पूर्व से पश्चिम तक 1600 किमी. विस्तृत थी।
वर्तमान में पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत के क्षेत्रा सैंधव सभ्यता के प्रमुख क्षेत्रा थे। इस सभ्यता के अवशेष द. अफगानिस्तान, क्वेटा घाटी, मध्य तथा द. ब्लूचिस्तान, पंजाब-बहावलपूर तथा सिंधु क्षेत्रा में भी पाये गये हैं। सभ्यता की निम्नांकित विशेषताएं हैं।
समाज
सैंधव समाज में कृषक, शिल्पकार, मजदूर वर्ग आदि सामान्य जन थे तथा पुरोहित, अधिकारी, व्यापारी व चिकित्सक आदि विशिष्ट जन थे। सबसे प्रभावशाली वर्ग व्यापारियों का था। दस्तकारों व कुम्हारों का विशेष स्थान था। योद्धा वर्ग के अस्तित्व का साक्ष्य नहीं मिलता है।
यहां के लोग शांतिप्रिय थे। सैंधव समाज मातृप्रधान था। सामान्यतः लोग सूती वस्त्रा का उपयोग करते थे। पुरूष की प्रतिमाओं में ऊपरी भाग वस्त्रारहित दिखलाया गया है। पुरुष एवं स्त्राी आभूषणों का प्रचूर मात्रा में प्रयोग करते थे। समाज में नाई वर्ग का अस्तित्व था। सिंध तथा पंजाब के लोग गेहूं और जौ, राजस्थान के लोग जौ, गुजरात के रंगपुर के लोग चावल, बाजरा खाते थे।
अर्थव्यवस्था
अधिकांश लोगों का मुख्य पेशा कृषि था। कपास की खेती का आरंभ सर्वप्रथम उन्हीं लोगों ने किया। इसलिए यूनानियों ने इस क्षेत्रा को सिंडोननाम दिया । यही सिंडोन बाद में सिन्धु नाम से जाना जाने लगा। मुख्य कृषि उत्पाद थे - खजूर, सरसों, मटर, बाजरा, कपास, केला, तरबुज, नारियल, जौ, तिल, अनार, गेहुँ, आदि।
गेहूँ की दो किस्में ट्रिटिकम कम्पैक्टम तथा ट्रिटिक्स स्फीरोकोकम प्राप्त हुई हैं। मुख्य रूप से जौ और गेहुँ की खेती की जाती थी। खेती के लिए लकड़ी का हल तथा फसल कटाई के लिए पत्थर के हंसिया का प्रयोग होता था। चावल के अवशेष रंगपुर तथा लोथल से प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से छः धारियों वाले जौ के साक्ष्य मिले हैं।
व्यापार-वाणिज्य
व्यापार मुख्यतः विनिमय पद्धति से किया जाता था तथा तौल की इकाई संभवतः 16 के अनुपात में थी। मुख्य व्यापारिक नगर अथवा बंदरगाह थे- भगतराव, मुंडीगाक, बालाकोट, सुत्कागेंडोर, सोत्काकोह, मालवान, प्रभासपाटन, डाबरकोट। मेसोपोटामियाई वर्णित शहर मेलुहा सिंध क्षेत्रा का ही प्राचीन नाम है। मेसोपोटामिया (ईराक) सैंधव के विनिमय स्थल दिलमुनऔर माकनथे। दिलमुन संभवतः बहरीन द्वीप था। माकन संभवतः ओमान था।
उद्योग
बर्तन बनाना अत्यंत महत्वपूर्ण उद्योग था। अन्य महत्वपूर्ण उद्योग-धंधे बुनाई, मूद्रा निर्माण, मनका निर्माण, ईंट निर्माण, धातु उद्योग, मूर्ति निर्माण थे। गलाई एवं ढ़लाई प्रौद्योगिकी प्रचलित थी तथा धातुओं से लघु मूर्तियां बनाने के लिए मोम-सांचा-विधि प्रचलित था। वे लौ-प्रौद्योगिकी से अनजान थे परंतु तांबा में टिन मिलाकर कांस्य बनाना जानते थे। मोहनजोदड़ो से ईंट-भट्टों के अवशेष मिले हैं। मिट्टी के बर्तन सादे हैं एवं उन पर लाल पट्टी के साथ-साथ काले रंग की चित्राकारी है तथा तराजू, मछलियां, वृक्ष आदि के चित्रा हैं।
कला तथा शिल्प
सबसे प्रसिद्ध कलाकृति- मोहनजोदड़ो से प्राप्त नृत्य की मूद्रा में नग्न स्त्राी की कांस्य प्रतिमा है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त दाढ़ी वाले व्यक्ति की मूर्ति भी प्रसिद्ध कलाकृति है। संभवतः यह पुजारी की प्रतिमा है। अधिकतर मनके सेलखड़ी के बने हैं। सोने एवं चांदी के मनके भी पाऐ गये हैं। मोहनजोदड़ो से गहने भी पाए गए हैं। चन्हूदड़ों एवं लोथल में मनके बनाने के कारखाने थे। सैंधव नगरों से सिंह के चित्राण का साक्ष्य नहीं मिला है। सभी नगरों से टेरीकोटा की मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जैसे- बंदर, कुत्ता, वृषभ आदि क मृण्मूर्तियां। स्वस्तिक चिन्ह सैंधव सभ्यता की देन मान जाता है। गाय की मृण्मूर्ति नहीं मिली है। सुरकोतड़ा तथा मोहनजोदड़ो से बैल की मृण्मूर्ति मिली है। मानवीय मृण्मूर्तियों में सबसे अधिक मृण्मूर्तियां स्त्रियों की हैं। हाथी दांत पर शिल्प कर्म के साक्ष्य मोहनजोदड़ो से मिले हैं। सैंधव सभ्यता के लोग सेलखड़ी, लालपत्थर, फीरोजा, गोमेद व अर्धकीमती पत्थर का उपयोग मनके बनाने में करते थे। लिपिसिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह एवं 250 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी के आयताकार महरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिले हैं। यह लिपि भाव चित्रात्मक थी। लिपि का सबसे ज्यादा प्रचलित चिन्ह मछली का है। सैंधव भाषा अभी तक अपठनीय है। सैंधव लेख अधिकांशतः मुहरों पर ही मिले हैं। संभवतः इन मुहरों का उपयोग उन वस्तुओं की गांठ पर मुहर लगाने के लिए किया जाता था। जो निर्यात की जाती थीं। मुहरें बेलनाकार, वृत्ताकार, वर्गाकार तथा आयताकार रूप में हैं। अधिकांश  मुहरें सेलखड़ी की बनी हैं। विभिन्न स्थलों से दो हजार से ज्यादा मुहरें प्राप्त हुई है। मुहरों पर सर्वाधिक चित्रा एक सींग वाले सांड़ (वृषभ) की है। मुहरों पर मानवों एवं अर्द्धमानव के चित्रा भी हैं।

सैंधव नदी एवं उनके तट पर बसे नगर:

राजनीतिक संरचना
प्रत्येक नगर (धौलावीरा को छोड़कर) के पश्चिमी भाग में दुर्ग होता था जहां प्रशासनिक या धार्मिक क्रियाकलाप किया जाता था। संभवतः वहां का शासन वणिक वर्ग के हाथों में था। हंटर महोदय के अनुसार शासन जनतंत्रात्मक था तथा पिग्गाट के अनुसार वहां पुरोहित वर्ग का पाभाव था।
नगर-योजना
सैंधव सभ्यता की सबसे उत्कृष्ट विशेषता उसकी नगर योजना थी। उनके छः स्थलों को ही नगरों की संज्ञा दी जाती है- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, चन्हूदड़ो, बनावली। नगरों की विशेषताएं-संरचना व बनावट में एकरूपता, दो भागों में विभाजित नगर संरचना(धौलावीरा को छोड़कर)। पश्चिमी भाग शासक वर्ग के लिए तथा पूर्वी भाग आमजन के लिए था। नगरों के सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी, जल निकास हेतु नालियों की व्यवस्था। नगर की सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं तथा मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाता था। सड़कें कच्ची थीं। मकानों में पक्की एवं बिना पकी ईंटों का प्रयोग होता था। मकान बहुमंजिले थे। लोथल को छोड़कर सभी नगरों के मकानों के मुख्य द्वार बगल की गलियों में खुलते थे।
मोहनजोदड़ो
पुरातात्विक साक्ष्य एवं विशेषताएं- महास्नानागार, अन्नागार व सभाकक्ष के अवशेष, सड़क को पक्का करने के साक्ष्य, राज मूद्रांक, तीन बंदरों वाला मनका, कांस्य नर्तकी की प्रतिमा, सिपी के स्केल, तीन मुख वाले पुरुष की ध्यान की मुद्रा वाली मुहर।
हड़प्पा- यह पकिस्तान के पंजाब राज्य के मोंटगोमरी जिले में रावी नदीं के बायंे तट पर स्थित है। दो टीला पूर्वी एवं पश्चिमी भाग में है। यहां अन्नागार गढ़ी के बाहर है जबकि मोहनजोदड़ो में यह गढ़ी के अंदर बना है। भवनों में अलंकार और विविधता का अभाव है। प्राप्त अवशेषों में अनाज कूटने के 18 वृत्ताकार चबूतरे, 12 कक्षों वाले अन्नगार, कब्रिस्तान आर-37, ताबूतों में शवाधान साक्ष्य। प्राप्त वस्तुओं में पीतल की इक्का गाड़ी, शंख का बना बैल, संाप को दबाए गरुड़ चित्रित मुद्रा, स्त्राी के गर्भ से निकलता पौधे के चित्रा, कागज का साक्ष्य, शव के साथ बर्तन व आभूषण, मजदूरों के आवास।
कालीबंगा
कालीबंगा का अर्थ काली चूड़ियां होती है। इसका निचला शहर भी वृर्गीकृत है। यहां से सार्वजनिक नाली के साक्ष्य नहीं मिले हैं।
विशेषताएं
विशाल दुर्ग-दीवार के साक्ष्य, लकड़ी की नाली के साक्ष्य, लकड़ी के हल के साथ बुआई का साक्ष्य।
प्राप्त वस्तुएं
बर्तन पर सूती कपड़े के छाप, सिलबट्टा, कांच व मिट्टी की चूड़ियां, तांबे की वृषभ आकृति, आयताकार 7 अग्नि वेदिकाएं।लोथलयहां दुर्ग और आवासीय नगर के लिए अलग-अलग टीले नहीं थे तथा मकानों का मुख्य दरवाजा सड़क की ओर खुलता था। नगर आयताकार है। लोथल सैंधव सभ्यता का मुख्य बंदरगाह था। रंगाई का कुण्ड बनाने का कारखाना, खिलौना नाव, मिट्टी के बर्तन पर चालाक लोमड़ी की कहानीनुमा चित्रांकन। चन्हुदड़ोयहां से झूकर व झांगड़ संस्कृति के अवशेष मिले हैं तथा मनका निर्माण, गुड़िया तथा मुहर निर्माण का कारखाना मिला है। प्राप्त अवशेषों तथा वस्तुओं में वक्राकार ईंटों, ईंटों पर बिल्ली का पीछा करते कुत्ते के पंजों का निशान, अलंकृत हाथी, कंघा, उस्तरा, चार पहियों वाली गाड़ी, तीन घड़ियाल एवं दो मछलियों वाली मुद्रा। यहां से संस्कृति के तीन चरण पाये गये हैं। धौलावीरागुजरात में अवस्थित यह अत्यंत विशाल नगर है। नगर तीन भागों- गढ़ी, मध्य तथा निचले नगर में विभाजित था। यहां दुर्ग नगर के दक्षिणी भाग में था जबकि अन्य नगर पश्चिमी भाग में था। नगर की आकृति समानांतर चतुर्भुज की है। बनवालीयहां से जल निकास के साक्ष्य नहीं मिले हैं। यहां से हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पा संास्कृतिक चरण के अवशेष मिले हैं। प्राप्त वस्तुओं में जौ, खिलौना हल, तांबे के वाण के नोक। रंगपुरगुजरात स्थित रंगपुर से तीन संस्कृतियों प्राक् हड़प्पा, विकसित हड़प्पा व उत्तर हड़प्पा के साक्ष्य मिले हैं। यहां से धान के भूसी व ज्वार, बाजरा के साक्ष्य मिले हैं। रोपड़पंजाब स्थित रोपड़ के मानव के साथ कुत्ते के शवाधान का साक्ष्य मिला है। यहां से प्रांरभिक ऐतिहासिक काल, ताम्र पाषाण काल तथा नवपाषाण काल के साक्ष्य मिले हैं। संभवतः आग लगने से इस नगर का विनाश हुआ था। सुरकोटदागुजरात स्थित सुरकोटदा से घोड़े के जीवाश्म, एण्टीमनी की छड़ व शापिंग कांप्लेक्स के साक्ष्य मिले हैं। सत्कागेंडोरबंदरगाह था तथा विदेशी व्यापार का केन्द्र था। यहां से मनुष्य अस्थि राख से भरा बर्तन तथा तांबे की कुल्हाड़ी मिले हैं। अन्य नगरकुणाल (हरियाणा) से चांदी के दो मुकुट मिले हंै तथा यह सरस्वती नदी के किनारे बसा था। संघोल (चंडीगढ़ के पास) से अग्नि कुंड के साक्ष्य मिले हैं।











अध्याय - वैदिक काल

इस सभ्यता की जानकारी वेद से होती है इसलिए इसका नाम वैदिक सभ्यतारखा गया। वैदिक सभ्यता के प्रर्वतक को आर्यजनका नाम दिया गया है। आर्यजन भारत के ही मूल निवासी थे। वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.) में विभक्त किया गया है।

ऋग्वैदिक काल:

ऋग्वैदिक काल में आर्यजन सात नदियों वाले सप्त सिंधु क्षेत्रा में रहते थे। यह वर्तमान में पंजाब व हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में स्थित हैं। कुरूक्षेत्रा के आस-पास के क्षत्रों को उन्होंने ब्रह्मवर्त का नाम दिया। इसके बाद गंगा-यमुना के मैदानी प्रदेश तक बढ़ आये और इस क्षेत्रा को ब्रहर्षि देशकहा। इसके उपरान्त वे हिमालय के दक्षिण एवं नर्मदा नदी के उत्तर (विन्ध्याचल के उत्तर) के मध्य के कुछ प्रदेशों तक बढ़ आये और उस प्रदेश को मध्य प्रदेशका नाम दिया। जब उन्होंने वर्तमान के बिहार, बंगाल के आस-पास तक पहुंच गये तब समस्त उत्तरी भारत के क्षेत्रा को आर्यावर्तअर्थात् आर्यो के रहने का स्थान कहकर संबोधित किया। उनके भौगोलिक क्षेत्रा के अंतर्गत गोमती का मैदान, द. जम्मू-कश्मीर, दक्षिणी अफगानिस्तान भी आते हैं। भौगोलिक ज्ञानऋग्वेद काल में आर्यो का निवास स्थान मुख्य रूप से पंजाब तथा सरस्वती से लगा अम्बाला तथा आस-पास का क्षेत्रा था। ऋग्वेद में 40 नदियों का उल्लेख है। सबसे महत्त्वपूर्ण एवं सर्वाधिक उल्लेखित नदी सरस्वती है। दूसरी महत्त्वपूर्ण नदी सिन्धु है। सरस्वती नदी का नदीतमा (नदियों में अग्रवर्ती) तथा सरयु का उल्लेख तीन बार तथा गंगा का उल्लेख एक बार हुआ है। नदी स्तुति में अंतिम नदी गोमती (गोमल) है। ऋग्वेद में चार समुद्रों का उल्लेख है। पर्वततीन पर्वतों का उल्लेख मिलता है- हिमवन्त (हिमालय), मंूजवंत पर्वत (हिन्दूकुश पर्वत), त्रिकोटा पर्वत। आर्यों का मादक पेय सोममूजवंत पर्वत से आता था। रावी नदी के तट पर प्रसिद्ध वैदिक दाशराज्ञ युद्ध (सुदास एवं दिवोदास के बीच) हुआ था। आर्यों को धन्व (मरुस्थलो) का भी ज्ञान था।

वैदिक नदियां

 

आर्थिक व्यवस्था

प्रारंभिक वैदिक समाज की अर्थव्यवस्था का आधार पशुपालन था। गाय ही आर्योें के विनिमय का प्रमुख साधन था। ज्यादा पशु रखने वाले को गोमतकहा जाता था। राजा को नियमित कर देने या भू-राजस्व देने की पद्धति विकसित नहीं हुई थी। दूरी को गवयुती और समय को मापने के लिए गोधुली शब्द का, पुत्राी के लिए दुहिता, युद्धों के लिए गविष्ट जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। लोग सोना व चांदी से परिचित थे। अग्नि को पथ निर्माता (पथिकृत) कहा गया है। उस काल में कृत्रिम सिंचाई की व्यवस्था भी थी। काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खीचें जाने का उल्लेख है। सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में कृषि की समस्त प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है। उद्योगवस्त्रा-निर्माण, बर्तन निर्माण, चर्म-कार्य तथा लकड़ी व धातु उद्योग थे। बढ़ई और धातुकार का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। उद्योग-धंधे व्यक्तिगत स्तर पर किये जाते थे। व्यापार हेतु सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भ्रमण करने वाले व्यक्ति को पणिकहा जाता था।

राजतंत्रा

आरंभिक वैदिक समाज में राजा का निर्वाचन युद्ध में नेतृत्व करने के लिए किया जाता था। वह किसी क्षेत्रा विशेष का प्रधान नहीं बल्कि वह किसी जन-विशेष का प्रधान होता था। वंशानुगत राज की अवधारणा नहीं थी। राजा को गोमत कहा जाता था। पुरोहित राजा की सहायता करता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार अभिषेक होने पर राजा महान बन जाता था। राजसूय यज्ञ करने वालों की उपाधि राजा थी तथा वाजपेय यज्ञ करने वाले की सम्राट। राजा की सहायता हेतु सेनानी, ग्रामाीण तथा पुरोहित आदि 12 रत्निनों के घर जाता था। राजा की सेना में व्रात, गण, ग्राम एवं शर्ध नामक कबीलाई सैनिक होते थे।

वैदिक देवतागण

देवताओं में इन्द्र, अग्नि और वरुण को सबसे अधिक महत्व प्राप्त है। इन्द्र वीरता तथा शक्ति, बादल तथा तड़ित का देवता था। उसे बज्रबाहू भी कहा जाता था। अग्नि की उपाधि धूमकेतु थी। उसे देवताओं का मुख, धौस, दुर्ग का भेदक, अतिथि तथ दुर्गों का भेदक बताया गया है।
वरूण का संबंध वायु जल से था। वह ऋतुओं का नियामक एवं नैतिक व्यवस्था बनाए रखने वाला देवता था।
सोम देवता का उल्लेख ऋग्वेद के नवें मंडल में 114 सूक्तों में किया गया है। सोम का संबंध चन्द्रमा एवं वनस्पति देवता से था।
इड़ा (दुर्गा) देवी अन्नपूर्णा और समृद्धि की देवी थीं। रूद्र देवता नैतिकता की रक्षा करने वाला तथा महामारी का प्रकोप से बचाने वाला अति क्रोधी देवता था। अर्धदेव के अन्तर्गत मनु, ऋभु, गंधर्व तथा अप्सरा आदि आते थे। मूर्तिपूजा और मंदिर पूजा का प्रचलन नहीं था। यज्ञश्रोत यज्ञों का संबंध सोम पूजा से था। सोम यज्ञों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अश्वमेघ तथा राजसूय यज्ञ थे। ऋग्वेद में ब्रह्माका अर्थ यज्ञ से है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्मा का उल्लेख है। यजुर्वेद एवं ऐतरेय में रूद्र को जनसाधारण का देवता बताया गया है। दसराज्ञ युद्धरावी के तट पर भरतवंश के राजा सुदास एवं अन्य दसजनों के बीच यह युद्ध हुआ था। इसमें पुरोहित विशिष्ट के यजमान राजा सुदास की विजय हुई थी। राजसूय यज्ञ से राजा को दिव्यशक्ति मिल जाती थी। वाजपेय यज्ञ में रथदौड़ आयोजित होता था।

वैदिक देवता


वैदिककालीन शब्दावलियां


1549 ऋचाऐं हैं, जिसमें मात्रा 78 ही नयीं हैं, शेष ऋग्वेद से ली गयीं हैं। सामवेद को भारतीय संगीत का जनक माना जाता है।

यजुर्वेद

इसमें यज्ञों को संपन्न कराने वाले सहायक मंत्रों का संग्रह है। इसके दो भाग हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद में छन्दोबद्ध मंत्रा तथा गद्यात्मक वाक्य हैं। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रा हैं। इसकी संहिताओं को वाजसनेय भी कहा जाता है।

अथर्ववेद

इसे अथर्वांगिरस वेदभी कहा जाता है, इसमें उस समय के समाज का चित्रा मिलता है, जब आर्यों ने अनार्यों के अनेक धार्मिक विश्वासों को अपना लिया था। इसमें कुल 20 कांड, 731 सूक्त तथा 5987 मंत्रों का संग्रह है। अथर्ववेद में रोग निवारण, तंत्रा-मंत्रा, विवाह, राजकर्म, औषधि आदि लौकिक विषयों से संबंधित मंत्रा हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है।

वेदांग

वेदों के अर्थ का समझने में सहायता हेतु छः वेदांग रचे गये- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छंद एवं ज्योतिष। शिक्षा- इसका संबंध वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण से है। कल्पसूत्रा- वैदिक विधि-विधानों का छोटे-छोटे वाक्यों में सूत्रा बनाकर प्रस्तुत किया गया है। व्याकरण- इसका संबंध भाषा संबंधी नियमों से है। व्याकरण की प्रमुख रचना पाणिनीकृत अष्टाध्यायी’ (5वीं सदी ई.पू.) है। निरूक्त- यह भाषा शास्त्रा का ग्रंथ है। इसमेें क्लिष्ट वैदिक शब्दों की व्याख्या है। प्रसिद्ध ग्रंथ यास्क रचित निरूक्तहै।
छन्द- वैदिक मंत्रा प्रायः छंद बद्ध हैं। ज्योतिष- शुभ मुहूर्त में यज्ञिक अनुष्ठान करने के लिए ग्रहों तथा नक्षत्रों का अध्ययन करके सही समय ज्ञात करने की विधि से इसकी उत्पत्ति हुई।

उपनिषद

उपनिषदों को वेदांतभी कहा जाता है। ये कुल 108 हैं। उपनिषदों का अर्थ है- रहस्यज्ञान हेतु गुरू के समीप निष्ठापूर्वक बैठना।
ये मुख्यतः ज्ञानमार्गी हैं तथा इनका मुख्य विषय ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन है। मुक्तिकोपनिषद में 108 उपनिषदों का उल्लेख है। सर्वाधिक प्राचीन और प्रमाणिक 12 उपनिषद माने जाते हैं। भारत का राष्ट्रीय वाक्य सत्यमेव जयते’ -मुण्डकोपनिषद से उदघृत है।

वेद-यज्ञकर्ता










अध्याय - बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे। शुद्धोधन इनके पिता (शाक्यगण के प्रधान) थे तथा महामाया (कोलियागण की राजकुमारी) माता थीं। 563 ई.पू. में लुम्बिनी में इनका जन्म हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था तथा कौडिन्य ने भविष्यवाणी की थी आगे चलकर यह बालक संन्यासी अथवा सम्राट बनेगा। 29 वर्ष की अवस्था में इन्होंने गृहत्याग (महाभिनिष्क्रमण) किया। आलार कालाम इनके प्रथम गुरू थे तथा द्वितीय गुरू रूद्रक रामपुत्त थे। गया के निरंजना नदी के तट पर वट वृक्ष के नीचे वैशाख पूर्णिमा के दिन इन्हें निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ।
ज्ञान प्राप्ति के बाद सुजाता नामक स्त्राी द्वारा लाया गया खीर खाये। बुद्ध ने प्रथम उपदेश ऋषिवन (सारनाथ) में दिया(धर्मचक्रप्रवर्तन)। 483 ई.पू. में कुशीनगर में चुंद के घर इनका महापरिनिर्वाण (मृत्यु) हुआ। इन्होंने सर्वप्रथम उपदेश मृगदाव (सारनाथ) में उपालि, आनंद, अश्वजीत, मोगल्लना एवं श्रेयपुत्रा को दिया। बुद्ध ने सर्वाधिक उपदेश श्रावस्ती में दिये। प्रथम महिला भिक्षु प्रजापति गौतमी थीं।
बौद्ध सिद्धांत
बौद्ध दर्शन के चार आर्य-सत्य हैं जिनमें बौद्ध धर्म का सार निहित है-
दुःख- विश्व में सर्वत्रा दुःख ही दुःख है। दुःख समुदाय- दुःख उत्पन्न होने का मूल कारण तृष्णा है। दुःख निरोध- दुःख निवारण के लिए तृष्णा को नष्ट करना अनिवार्य है। दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा- दुःख के मूल अविद्या के नाश के लिए आष्टांगिक मार्ग हैं। अष्टांगिक मार्ग- सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि। प्रतीत्य समुत्पाद- प्रतीत्य समुत्पाद ही बुद्ध की संपूर्ण शिक्षाओं का सार एवं आधार स्तंभ है। इसका अर्थ है- किसी वस्तु के होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति होना। मध्यम प्रतिपदा- बुद्ध ने अति का निषेध करते हुए मध्यम मार्ग को अपनाने की सलाह दी । जरामरण- विश्व के प्रत्येक प्रकार के दुःख का सामूहिक नाम जरामरण है। क्षणिकवाद- विश्व का प्रत्येक वस्तु निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् क्षणभुंगर है।
बौद्ध दर्शनबौद्ध धर्म का परम लक्ष्य है- निर्वाण की प्राप्ति, जो कि इसी जन्म में प्राप्त किया जा सकता है। बौद्ध धर्म पर सांख्य दर्शन का प्रभाव है। कर्मवाद की मान्यता है तथा तर्क को प्रधानता प्राप्त है। बुद्ध आत्मा व ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नही रखते थे। परंतु पुनर्जन्म में विश्वास था।
बौद्ध धर्म के संप्रदाय
हीनयानअर्थात् छोटा वाहन। ये लोग बुद्ध के मौलिक सिद्धांतों पर विश्वास करने वाले रूढ़ीवादी थे। मूर्तिपूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं रखते थे। वे बुद्ध को केवल मार्गदर्शक स्वीकार करते थे ईश्वर नहीं। महायानअर्थात् बड़ा वाहन। ये लोग बुद्ध को ईश्वर मानते थे। ये मूर्तिपूजा एवं भक्ति में विश्वास रखते थे। इसमें बोधसत्व की अवधारणा है। महासंघिक संप्रदाय से प्रभावित इस मत की स्थापना प्रथम सदी में हुई।
इनकी प्रसिद्ध रचना माध्यमिक कारिका है। इन्होंने संस्कृत में ग्रन्थ लिखे। वैभाषिककश्मीर मंे प्रचलित इस मत के प्रमुख आचार्य वसुमित्रा एवं बुद्धदेव थे। शुन्यवाद या माध्यमिकइसके प्रवर्तक नागार्जुन थे। वज्रयानसातवीं सदी में तंत्रा-मंत्रा के प्रभाव से वज्रयान संप्रदाय का उद्भव हुआ। इसमें तारानामक देवी को प्रमुख स्थान प्राप्त था।










अध्याय - जैन धर्म
इस धर्म की स्थापना प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने किया था। 23वें जैन तीर्थंकर ने जैन धर्म को व्यवस्थित रूप प्रदान किया। परंतु वास्तविक रूप से जैन धर्म को समाज में प्रतिष्ठित करने का श्रेय 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का है।
महावीर स्वामी
इनका जन्म कुंडग्राम में 540ई.पू. में हुआ था। इनके माता-पिता सिद्धार्थ (ज्ञातृक क्षत्रिय) तथा त्रिशला (लिच्छवी नरेश चेटक की बहन) थीं। इनके बालपन का नाम वर्धमान था। याशोदा उनकी पत्नी तथा अणोज्जा प्रियदर्शनी पुत्राी थीं। 30वर्ष की अवस्था में इन्होंने गृहत्याग कर 12 वर्षों तक तपस्या की। जम्भिग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे इन्हें सर्वाेच्च ज्ञान (कैवल्य) प्राप्त हुआ।
जैन धर्म के सिद्धांत
त्रिरत्न - सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक आचरण। जैन धर्म में कर्मवाद एवं पुनर्जन्म की मान्यता है परंतु देवताओं को जिनके नीचे का दर्जा दिया गया है। जैन धर्म में संसार को वास्तविक, शास्वत तथा दुःखमूलक माना गया है। ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं माना गया है। 23वें तीर्थंकर को चतुर्थीतथा उनके अनुयायियों को निग्र्रन्थकहा जाता है। महावीर के 11 शिष्यों को गणधरकहा गया। जिनके साथ उन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।
जैन धर्म के संप्रदाय
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर चैथी सदी ई.पू. में जैन धर्म में हुए विभाजन के बाद जैन मुनि भद्रबाहु के साथ अनेक लोग दक्षिण भारत चले गये। नग्न रहने के कारण वे दिगम्बर कहलाये। स्थूलभद्र के नेतृत्व में जो जैन लोग मगध में रह गये वे श्वेत वò धारण करने के कारण श्वेताम्बर कहलाये। थेरापंथीश्वेताम्बर संप्रदाय का वह समूह जिसने मूर्ति पूजा की जगह ग्रंथ पूजा आरंभ किया।
जैन सम्मेलन







अध्याय - भागवत धर्म
भागवत धर्म का उद्भव ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकांड एवं यज्ञीय व्यवस्था के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। इस धर्म का उल्लेख सर्वप्रथम छठी ई.पू. के आस-पास के उपनिषदों में मिलता है। वासुदेव द्वारा प्रतिपादित यह धर्म व्यक्तिगत उपासना को महत्व देता है। महाभारत काल में कृष्ण का तादात्म्य विष्णु से कर दिये जाने के कारण भागवत धर्म वैष्णव धर्म भी कहलाया।
वासुदेव कृष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख छांदोग्य उपनिषद् में देवकी के पुत्रा एवं आगिरस के शिष्य के रूप में हुई।
मेगस्थनीज ने कृष्ण को हेराक्लीज नाम से उल्लेख किया है।
वैदिक देवता एवं उनके विदेशी नाम





अध्याय - शैव धर्म

शिव पूजा का प्रमाण सैंधव सभ्यता से ही मिलने लगा परंतु प्रत्यक्ष रूप से शैव धर्म उपनिषदोत्तर काल में सामने आया जब शिव का रूद्र के साथ एकात्म्य स्थापित हुआ। शिव का अर्थ है शुभ लिंग पूजा।
इसका सर्वप्रथम साक्ष्य सिंधु सभ्यता में मिलता है। पतांजलि के महाभाष्य (द्वितीय सदी ई.पू.) में पहली बार शिव की मूर्ति पूजा का उल्लेख मिलता है।

प्रमुख शैव संप्रदाय

पाशुपत- शैव धर्म के इस प्राचीनतम संप्रदाय के संस्थापक गुजरात के लकुलीश (गुजरात) थे। उन्हें शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है। इस मत के अनुयायी पंचरार्थिक कहलाये। कालपलिक या कालामुखइसमें तंत्रा-मंत्रा, नरबलि तथा पंचतत्व (मद्य, मांस, मैथुन, मत्स्य तथा मदिरा) का प्रचलन था। नाथ संप्रदायइसके संस्थापक मत्स्यंेद्र नाथा थे तथा वसवराज गोरखनाथ थें। कश्मीरी शैववसुगुप्त ने इसकी स्थापना की थी।

महाजनपद तथा मगध का उत्थान

छठी शाताब्दी ई.पू. से पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी एवं उत्तरी बिहार में लोहे का व्यापक प्रयोग होने लगा। जिससे महाजनपदों के निमार्ण की परिस्थिति बन गई। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय में सोलह महाजनपदोंका वर्णन किया गया है जो कि निम्न हैं।


मगध के राजा एवं राजवंश

हर्यक वश् (543.412 ई. प)

बिम्बिसार (543.492 ई. पू.) यह बुद्ध का समकालीन था। तथा उपमान श्रेणिकथा। इसने गिरिव्रज को अपनी राजधानी बनाई। इसने कोशल राज्य के राजा प्रसेनजित की बहन कोशल देवी के साथ विवाह किया और काशी प्रांत दहेज में प्राप्त किया। इसकी दूसरी पत्नी लिच्छवी प्रमुख चेटक की बहन चेल्लना तथा तृतीय पत्नी मद्र की राजकुमारी क्षेमा थी। इस तरह उसने वैवाहिक संबंधो द्वारा राज्य को सुदृढ़ता प्रदान किया। इसने अपने चिकित्सक जीवक को अंवति के राजा प्रघोत की चिकित्सा हेतु उज्जैन भेजा था।
अजातशत्रु (492-460ई.पू.) यह अपने पिता की हत्या कर गद्दी पर बैठा। इसका अन्य नाम कुणिक था। इसने काशी व वज्जिसंघ को मगध में मिला लिया। इसने अपने मंत्राी वस्सकार को वज्जिसंघ में फूट डालने के लिए भेजा था।
उदयिन (460-444 ई.पू.) उदयिन ने गंगा एवं सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्रानामक नगर बसाकर मगध साम्राज्य की राजधानी बनाया।
शिशुनाग वंश (412-344 ई.पू.) ने अवंति तथा वत्स को जीतकर मगध  साम्रज्य का अंग बनाया। इसने वैशाली को राजधानी बनाया। कालाशोक (काकवर्ण) ने राजधानी पुनः पाटलिपुत्रा स्थानांतरित कर दी।
नन्द वंश (344-322 ई.पू.) नन्द वंश का संस्थापक महापद्मनन्द था। उसे सर्वक्षत्रांतक तथा उग्रसेन भी कहा गया है। उसकी उपाधि एकराटथी। खारवेल के हाथीगुम्फा लेखानुसार वह कलिंग विजित कर जिनवेन की प्रतिमा को उठा लाया था। उसने कलिंग में एक नहर का निर्माण किया था। अंतिम राजा घनानंद था। उसके काल में सिकन्दर ने भारत पर आŘमण किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने घनानन्द की हत्या कर मौर्य वंश की स्थापना की।







अध्याय - मौर्य साम्राज्य
अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना प्रथम बार मौर्यकाल में हुई। इस काल से भारतीय इतिहास में एक निश्चित तिथिक्रम का ज्ञान आंरभ हुआ।
चन्द्रगुप्त मौर्य (323-298 ई.पू.)
मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त था। विलियम जोन्स प्रथम विद्वान थे जिन्होंने सेंड्रोकोट्सकी पहचान चन्द्रगुप्तसे स्थापित की। चन्द्रगुप्त मौर्य की सिकंदर से परिचय सैनिक शिक्षा ग्रहण करते समय तक्षशिला में हुई थी। 304-5 ई.पू. में बैक्ट्रिया के शासक सेल्यूकस को चन्द्रगुप्त ने पराजित कर उसकी पुत्री से विवाह किया। दहेज में हेरात, कंधार, मकरान तथा काबुल प्राप्त किया। सेल्युकस ने अपना राजदूत मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त के दरबार मे भेजा था। यूनानी लेखकों ने उसे पोलिबोथ्रा के नाम से संबोधित किया है। प्लूटार्क के अनुसार चन्द्रगुप्त ने अपनी 6 लाख सेना से पूरे भारत पर आधिप्त स्थापित किया। चन्द्रगुप्तनामक प्राचीनतम उल्लेख रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में प्राप्त हुआ है। अंतकाल में चन्द्रगुप्त ने श्रवणवेलगोला में जैनों की तरह उपवास करके प्राण त्याग दिये।
बिंदुसार
बिंदुसार के काल में भी चाणक्य प्रधानमंत्री था। बिंदुसार आजीवक संप्रदाय का अनुयायी था। स्ट्रेबो के अनुसार यूनानी शासक एण्टियोकस ने बिंदुसार के दरबार मे डाइमेकस नामक दूत भेजा था। बिंदुसार ने एण्टियोकस से मदिरा, सूखे अंजीर तथा एक दार्शनिक भेजने की मांग की थी परंतु एंटियोकस ने मदिरा तथा सूखे अंजीर तो भेजे परंतु दार्शनिक नहीं भेजे। प्लिनी के अनुसार मिस्र के राजा टालेमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने डाइनासियस को बिंदुसार के दरबार में भेजा था। बिंदुसार की उपाधि अमित्राघात अर्थात शत्रुओं का वध करने वालाथा। उसका अन्य नाम भद्रसार तथा सिंहसेन भी था। दिव्यवदान के अनुसार उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला में विद्रोह को खत्म करने के लिए उसने अपने पुत्रा अशोक को भेजा था। तारानाथ के अनुसार नेपाल के विद्रोह को भी अशोक ने समाप्त किया।
अशोक (273-223 ई.पू.)
अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी था। महादेवी तथा करूवाकी उसकी पत्नियां थीं। सिंहली अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाईयों की हत्या कर गद्दी प्राप्त की थी। उसका राज्यभिषेक 269 ई.पू. में हुआ था परंतु वह 273 ई.पू. में गद्दी पर बैठाा। कल्हण के अनुसार अशोक ने कश्मीर में श्रीनगरकी स्थापना की। उसने शासन के सातवें वर्ष में कश्मीर व खोतान को जीता था। आठवें वर्ष 261 ईपू. में कलिंग युद्ध किया। कलिंग युद्ध के भीषण नर संहार के बाद उसने युद्ध न करने का संकल्प लिया तथा धम्म विजयको अपनाया।
अशोक के प्रसिद्ध कार्य
अशोक भारत का प्रथम सम्राट था जिसने अभिलेखों के माčयम से जनता को संबोधित किया। संभवतः इसकी प्रेरणा उसे डेरियसके शिलालेख से मिली थी। असम एवं सुदूर दक्षिण को छोड़कर संपूर्ण भारतवर्ष उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अशोक ने अपने शासनकाल के 14वें वर्ष में धम्ममहामात्रोंकी नियुक्तियां आरम्भ की। अशोक ने अपने अधिकारियों को प्रत्येक पांच वर्ष पर दौरा करने का निर्देश दिया था जिसे अनुसंधानकहा गया है।
अशोक के उत्तराधिकारी
पुराणों के अनुसार अशोक के बाद उसका पुत्रा कुणाल गद्दी पर बैठा। दिव्यवदान में उसे धर्मविवर्धन कहा गया है। राजतरंगिणी के अनुसार जालौक कश्मीर का स्वतंत्रा शासक बना। अशोक के बाद उसका साम्राज्य दो भागों में बंट गया। पूर्वी भाग का शासक दशरथथा तथा आजीवकों के लिए नागार्जुनी गुफाओं का निर्माण करवाया। मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहदरथअत्यंत दुर्बल था। उसके सेनापति पुष्यमित्रा शुंग ने उसकी हत्या कर 185 ई.पू. में मगध की सत्ता पर अधिकार कर लिया।
पतन के कारण
हर प्रसाद शात्री के अनुसार मौर्यों के पतन का कारण अशोक की धार्मिक नीति थी। हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अशोक की अहिंसा की नीति तथा रोमिला थापर के अनुसार आर्थिक संकट उत्तरदायी थे।





अध्याय - मौर्य प्रशासन
मौर्य शासन व्यवस्था निरंकुश, कल्याणकारी तथा केन्द्रीभूत थी। यह व्यवस्था नौकरशाही तंत्रा पर आधारित थी। अर्थशाò में राज्य को सात प्रकृतियों की समष्टिकहा गया है। इनमें सम्राट की स्थिति कूटस्थानीयहोती थी। अन्य अंग थे- आमात्य, जनपद, कोष, दुर्ग, बल तथा मित्रा। इस काल में राजतंत्रा का विकास हुआ। शीर्षस्थ अधिकारी के रूप में 18 तीर्थों का उल्लेख मिलता है जिन्हें 48 हजार पण वेतन मिलता था। आमात्यप्रशासनिक कार्य में सम्मिलित उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की सामान्य उपाधि था। ये वर्तमान के प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के सादृश्य थे। कर्मचारियों को वेतन नगद दिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार सैन्य विभाग 30 सदस्यीय एक सर्वोच्च परिषद के नियंत्राण में कार्य करती थी जो 6 भागों में विभाजित था- जल सेना, यातायात, रसद विभाग, पैदल सैनिक, अश्वरोही सैनिक, हस्तिसेना तथा रथ सेना विभाग। सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति होता था। मौर्यों की गुप्तचर व्यवस्था अत्यंत कुशल थी जो महामात्यपसर्पके अधीन कार्य करता था। गुप्तचरों को गुढ़पुरूषकहा जाता था। एक ही स्थान पर रहकर गुप्तचरी का कार्य करने वाले संस्थातथा भ्रमणकारी गुप्तचर संचारकहलाते थे।
न्याय व्यवस्था
पाटलिपुत्रा में केंद्रीय सर्वोच्च न्यायालय था जिसका सर्वोच्च न्यायाधीश सम्राट होता था। धर्मस्थीय न्यायालयदीवानी अदालत थी। इसमें आने वाले चोरी, डकैती के मामले साहसकहे जाते थे। जिसमें राज्य तथा व्यक्ति के बीच विवाद, सरकारी कर्मचारियों से विवाद आदि मामलों की सुनवाई होती थी। 800 गांवों के लिए स्थानीय न्यायालय, 400 गावों के लिए द्रोणमुख तथा 10 गांवों के लिए संग्रहण की व्यवस्था थी।

प्रांतीय शासन
प्रांतों का शासन राजवंश के व्यक्तियों के द्वारा चलाया जाता था। जिसे कुमारअथवा आर्यपुत्राकहा जाता था। नगरका प्रशासनिक अधिकारी नागरकहोता था। गोप तथा स्थानिक उसकी सहायता करते थे।
मेगस्थनीज के अनुसार नगर प्रशासन 30 सदस्यों के मंडल द्वारा संचालित होता था। यह मंडल 6 समितियों में विभाजित होता था तथा प्रत्येक समिति में पांच सदस्य होते थे। प्रथम समिति उद्योग एवं शिल्प से, द्वितीय विदेशियों की देखभाल से, तृतीय जन्म-मृत्यु पंजीकरण से, चतुर्थ व्यापार से, पंचम वस्तुओं के उत्पादन स्थल के निरीक्षण से तथा षष्ठम् बिक्री कर से संबंधित होती थी।
सामाजिक व्यवस्था
कौटिल्य ने शूद्रों को आर्यकहते हुए उन्हें मलेच्छों से भिन्न बतलाया है। शूद्रों को शिल्पकार और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और व्यापार से अजीविका चलाने की अनुमति दी है। इन्हे दास बनाये जाने पर प्रतिबंध था। मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों मे विभाजित किया है- 1. दार्शनिक, 2. कृषक 3. अहीर, 4. शिल्पी, 5. सैनिक, 6. निरीक्षक, 7. सभासद। स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। उन्हे पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। घरेलु स्त्रियां अनिष्कासिनीकहलाती थीं।
विवाह के प्रकार
  1. ब्रह्म विवाह- विवाह का सर्वोतम प्रकार, जिसके अन्तर्गत कन्या का पिता योग्य वर का चयन कर विधि पूर्वक कन्या प्रदान करता था। वर्तमान में प्रचलित है।
  2. दैव विवाह- विधिवत यज्ञ कर्म करते हुए ऋत्विज (विद्वान) को कन्या प्रदान करना।
  3. आर्य- वर से एक जोड़ी गाय और बैल लेकर कन्या सौंपना।
  4. प्रजापत्य- वर को कन्या प्रदान करते हुए पिता आदेश देता था कि दोनों साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्य का निर्वाह करें।
  5. आसुर- कन्या का पिता वर को धन के बदले कन्या सौंपता था।
  6. गन्धर्व- प्रेम-विवाह
  7. राक्षस- कन्या का अपहरण कर विवाह करना।
  8. पैशाच- वर छल करके कन्या के शरीर पर अधिकार कर लेता था।
आर्थिक व्यवस्था
मौर्यकाल में आर्थिक व्यवस्था का आधार कृषि था। इस काल में प्रथम बार दासों को कृषि कार्य में लगाया गया। कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को अर्थशाò में सम्मिलित रूप से वार्ताकहा गया है। जिस भूमि में बिना वर्षा के ही अच्छी खेती होती थी उसे अदेवमातृक कहते थे। सीतासरकारी भूमि होती थी। भू-राजस्व उपज का 1/4 भाग से 1/6 भाग तक होता था। राज्य की ओर से सिंचाई का पूर्ण प्रबंध था जिसे सेतुबंध कहा जाता था। सिंचाई कर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक थी। सूत कातना तथा बुनना सबसे प्रचीन उद्योग था। सूती कपड़े के लिए काशी, बंग, मालवा आदि प्रसिद्ध थे। बंग मलमल के लिए प्रसिद्ध था। चीन से रेशम आयात किया जाता था। देशज वस्तुओं पर तथा आयातित वस्तुओं पर 10» बिक्री लिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार बिक्री कर न देने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था।
कला
मौर्य काल में प्रथम बार पत्थर की कलाकृतियां मिलती हैं। मौर्य कला दो रूपों में उपलब्ध है- एक के अन्तर्गत राजमहल तथा अशोक स्तंभों में आते हैं तथ दूसरी लोककला के रूप में परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर ग्रहिणी और वेसनगर की यक्षिणी मौजूद हैं। मौर्यकाल के सर्वाेत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्म स्तंभ मानोलिथक हैं।
जो धम्म प्रचार के लिए विभिन्न स्थानों में स्थापित किये गये थे। ये चुनार के घूसर रंग के बलुआ पत्थर के बने हैं। स्तंभ सपाट हैं और एक ही पत्थर के बने हुए हैं इन पर चमकीला पालिश है।


अध्याय - मौर्योत्तर काल
शुंग वंश (185 ई.पू- 73 ई.पू.)
शंगु वंश की जानकारी के स्रोत हैं- दिव्यावदान, मालविकाग्निमित्रा ग्रंथ, अयोध्या एवं विदिशा से प्राप्त अभिलेख आदि। 185 ई.पू. मे पुष्यमित्रा शुंग ने अंतिम मौर्य शासक वृहदरथ की हत्या कर शुंग वंश की नींव डाली। शुंग वंश ब्राह्ममण राजवंश था। इसकी राजधानी विदिशा थी। पुष्यमित्रा की उपाधि सेनानी थी। इसने दो अश्वमेघ यज्ञ किये तथा पतांजलि इन यज्ञों के पुरोहित थे। पतांजलि ने इसके काल में अष्टाध्यायी पर महाभाष्य लिखा।
कण्व वंश (73ई.पू.-28ई.पू.)
शुंगवंश के शासक देवभूमि की हत्या कर वासुदेव ने कण्ववंश की स्थापना की। इस वंश का शासन केवल बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश तक था। यह भी ब्राह्मण राजवंश था। इस वंश के अंतिम शासक सुशर्मन को विस्थापित कर सातवाहनों ने अपने राजवंश की स्थापना की।

सातवाहन वंश
पुराणों में सातवाहनों को आंध्रभृत्यकहा गया है। उनके पूर्वज पहले मौर्यों के सामंत थे। सिमुकने (30ई.) सातवाहन राज्य को स्थापित किया। सातवाहनों की राजधानी प्रतिष्ठान (पैठन) थी जो एक प्रमुख व्यापारिक नगर भी था। के.पी.जायसवाल के अनुसार सातवाहन अशोक के अभिलेखों में वर्णित सतियपुतथे। इस वंश का प्रथम प्रसिद्ध राजा शातकर्णी प्रथमथा। इसकी उपाधियां अप्रतितचक्र, दक्षिणापथपति थीं। इसने दो अश्वमेघ में इसके बारे में जानकारी दी है। राजा हाल’ (20 ई.-24 ई.) ने प्राकृत भाषा में गाथा सप्तशतीनामक ग्रन्थ की रचना की।
प्रशासन, अर्थव्यवस्था, समाज
सातवाहन ब्राह्मण थे तथा उनकी राजकीय भाषा प्राकृत थी। शासकों ने अपनी तुलना राम, केशव, भीम आदि से की। सर्वप्रथम भूमि अनुदानों का अभिलेख साक्ष्य सातवाहनों का ही है। इस समय विदेशी व्यापार विशेषकर रोमनों से व्यापार का काफी विकास हुआ।
इंडो-ग्रीक शासक (हिंद-यवन शासक)
मौर्यत्तर काल में भारत पर अक्रमण करने वाला प्रथम सफल आक्रमण इंडो ग्रीक शासक डेमेट्रियसने किया। उसने सिंध और पंजाब पर अपना अधिपत्य स्थापित किया। उसकी राजधानी साकलथी। हिन्द-यवन शासक यूक्रेटाइडीज ने भी भारत के कुछ भागों को विजित कर तक्षशिलाको राजधानी बनाया। हिन्द-यवन शासकों में सबसे प्रसिद्ध शासक मिनांडर था। वह डेमेट्रियस का सेनापति था। उसकी राजधानी स्यालकोट या साकल थी। भड़ौंच के बाज़ार में उसके सिक्के चलते थे।
उनकी शक्ति का केंद्र सिंध था। वहां से वे भारत के पंजाब, सौराष्ट्र आदि स्थानों पर फैल गये।
अशोक कालीन प्रांत:



अर्थशास्त्रा में वर्णित अध्यक्ष:




अध्याय - कुषाण साम्राज्य
कुषाण यू-ची कबीले से संबंधित थे। उनका मूल स्थान चीन के पास था। उसने रक्षा के लिए प्रसिद्ध चीन की दीवार बनाई गई थी। भारत में कुषाण वंश का प्रथम शासक कुजुल कडाफिसस’ (15 ई.-65 ई.) था। उसका पुत्रा विम विमडफिसस के सिक्कों पर शिव का चित्रा है।
कनिष्क (78 ई.-144 ई.)
इस वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क था। यह मौर्योत्तर काल का सबसे प्रसिद्ध शासक था। उसका साम्राज्य पूर्व में मगध तक तथा दक्षिण में सांची तक था। कनिष्क का साम्राज्य तत्कालीन विश्व में तीन बड़े साम्राज्यों रोम, पर्थिया तथा चीन के समकक्ष था। कल्हण के अनुसार उसने कश्मीर में कनिष्कपुरनगर बसाया। उसने मध्य एशिया में खोतान, काशगर तथा समरकंद को भी विजित किया था। उसने पाटलिपुत्रा से बौद्ध विद्वान अश्वघोष, बुद्ध का भिक्षापात्रा आदि प्राप्त किया था।
मौर्यात्तरकालीन प्रशासन, समाज एवं धर्म
इस काल में राजतंत्रा में दैवीक तत्वों का समायोजन किया गया। शकों एवं पर्थियनों ने संयुक्त शासन (राजा तथा राजकुमार) की प्रथा आरंभ की। कुषाणों ने मृत राजाओं की मूर्तियां स्थापित कर मंदिरों का निर्माण (देवकुल) करवाया। कुषाणों ने घुड़सवारी, लगाम, जीन, पगड़ी, लंबे कोट, बूट आदि को भारत में प्रचलित किया।

अर्थव्यवस्था
कुषाणों ने सर्वाधिक शुद्ध सोने के सिक्के जारी किये। इस काल में विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में था। सबसे प्रसिद्ध पश्चिमतटीय बंदरगाह भंडौचथा। सबसे प्राचीन सोपारा तथा बड़ा कल्याण बंदरगाह था। मध्य एशिया से गुजरने वाला वह व्यापारिक मार्ग जो चीन को पश्चिम के एशियाई-भू-भाग एवं रोमन साम्राज्य से जोड़ता था, सिल्क मार्ग कहलाता था। इसमें भारतीय व्यापारियों की भूमिका मध्यस्थों की होती थी।
गुप्त साम्राज्य (275 ई.-550 ई.)
गुप्तनाम इस वंश के संस्थापक का था और सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने इसे अपने नाम के साथ प्रयुक्त किया। गुप्त वंश से संबंधित जानकारी के स्रोत-नारद एवं बृहस्पति स्मृति, आर्यमंजुश्रीमूकल्प, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, कौमुदी महोत्सव, देवीचन्द्रगुप्तम, नीतिसार, कालिदास की कृतियां, फाहियान का विवरण।
गुप्त शासक
गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त (लगभग 275 ई.) का माना जाता है।
श्रीगुप्त कुषाणों का सामंत था। स्कन्दगुप्त के सुपिया (रीवा) अभिलेख में गुप्तों की वंशावली घटोत्कच से आरंभ होती है।
चन्द्र गुप्त प्रथम (320-335 ई.)
उसने महाराजाधीराज की उपाधि धारण की तथा लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया। उसने 319-320 में गुप्त संवत चलाया। उसके स्वर्ण सिक्के को राजा-रानी प्रकार या विवाह प्रकार कहा जाता है।
समुद्रगुप्त (335-380 ई.)
हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त का राज्य प्रदान करने का वर्णन है। यह प्रशस्ति अशोक के लेख स्तंभ पर अंकित है, जिसमें अशोक द्वारा बौद्ध संघ में विभेद रोकने का निर्देश है। काचनामधारी सिक्कों के आधार पर कुछ विद्वानों ने कंाच को समुद्रगुप्त का विद्रोही भाई बताया है।
अशोक के अभिलेख


चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य’ (380-415 ई.)

चन्द्रगुप्त द्वितीय से संबंधित अभिलेख हैं- मथुरा स्तंभ, महरौली का लौह स्तंभ, उदयगिरि के दो लेख, गढ़वा तथा संाची से प्राप्त अभिलेख। चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देवराज राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया। चन्द्रगुप्त ने उज्जैन को द्वितीय राजधानी बनायी। वहां पर उसके दरबार में नवरत्न विद्वान जैसे- कालिदास, अमरसिंह, धन्वंतरि, बाराहमिहिर आदि रहते थे। उसके काल में चीनी यात्री फाहीयान(399-414 ई.) भारत आया था।
फाहीयान के अनुसार उसके काल में मृत्युदंड नही दिया जाता था। उसके स्वर्ण के सिक्के दीनारतथा चांदी के सिक्के रूप्यककहलाते थे। 
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वकाटक शासक रूद्रसेन द्वितीय से किया। देवीचन्द्रगुप्तमनामक नाट्य ग्रंथ में चन्द्रगुप्त द्वितीय से पूर्व रामगुप्त नामक शासक का वर्णन किया गया है।

कुमारगुप्त (415-455 ई.)

चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्रा कुमारगुप्त के अभिलेख हैं- गढ़वा अभिलेख, मथुरा तथा संाची अभिलेख, उदयगिरि-गुहालेख, दामोदरपुर ताम्रपत्रा, बिलासढ़ तथा तुमैन अभिलेख। वह कार्तिकेय का उपासक था। उसने मयूर शैलीकी मुद्रा जारी की। मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन उसके काल में हुआ। उसकी उपाधि महेंद्रादित्यथी। उसने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की। उसने अश्वमेघ यज्ञ भी किया था।

स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

स्कन्दगुप्त के प्रसिद्ध अभिलेख हैं- जूनागढ़, कहौम तथा गढ़वा शिलालेख, सुपिया व भितरी स्तंभ लेख, बिहार स्तंभ तथा इंदौर ताम्र पत्रा लेख। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार सौराष्ट्र प्रान्त में स्कन्दगुप्त का राज्यपाल पर्णदत्त था तथा गिरनार के चक्रपालित ने सुदर्शन झील का पुनर्निमाण करवाया था। इंदौर ताम्रपत्रा में सूर्य मंदिर में पूजा हेतु दान का विवरण है। भितरी स्तंभ में हूणों के साथ युद्ध का वर्णन है। जूनागढ़ अभिलेख में भी हूणों के आक्रमण एवं स्कन्दगुप्त की सफलता का उल्लेख है।

अवनति काल (467-550 ई.)

पुरूगुप्त (467-476 ई.) स्कंदगुप्त का सौतेला भाई पुरूगुप्त कमजोर शासक था। वह बौद्ध गुरू वसुबंधु का शिष्य था।

अशोक के विभिन्न नाम एवं उपाधि:


कुमार गुप्त द्वितीयइसका एक लेख सारनाथ में मिला है। कुमार गुप्त प्रथम द्वारा निर्मित दशपुर सूर्य मंदिरका इसने जीर्णोद्धार कराया। बुध गुप्तके लेख सारनाथ तथा एरण से प्राप्त हुए हैं। उसने शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया। नरसिंह बालादित्यइस समय तक गुप्त साम्राज्य तीन राज्यों मगध, मालवा तथा बंगाल मे बंट चुका था। इसकी उपलब्धि थी कि इसने हूण शासक मिहिरकुल को पराजित किया तथा अपने राज्य में अनेक स्तूप तथा बिहार बनवाये। भानुगुप्तएरण अभिलेख (510 ई.) में भानुगुप्त के मित्रा गोपराज की पत्नी के सती हो जाने का उल्लेख है। भानुगुप्त एवं हूण के बीच युद्ध को स्वतंत्राता संग्रामभी कहा गया है। गुप्त वंश का अंतिम शासक विष्णुगुप्तथा।

प्रशासन

मौर्यो के विपरीत गुप्तों ने महाराजाधिराज तथा परमभट्टारक जैसी उपाधियां धारण की जिससे ज्ञात होता है कि गुप्तों ने अनेक छोट-छोटे राजाओं पर शासन किया। प्रांतीय शासक अपने क्षेत्रा में पर्याप्त रूप से स्वतंत्रा थे। परंतु यह व्यवस्था गुप्त वंश के Ðास का कारण सिद्ध हुई। सभी उच्च पद वंशानुगत थे। गुप्त साम्राज्य प्रांतों में, प्रांत भुक्ति विषयों (जिलों) में तथा विषय विथियों में तथा विथियां ग्रामों में विभाजित थे। कुमारामात्यसबसे बड़े अधिकारी होते थे और प्रांतों के राज्यपाल बनाये जाते थे। ये राजपरिवार के सदस्य या राजकुमार होते थे। करों की कुल संख्या, 18 थी। भूमि कर (भाग) उत्पादन का छठा भाग था। कर्मचारियों को वेतन के बदले भूमि अनुदान भी दिया जाता था। अग्रहारसिर्फ ब्राह्मणों को दिया जाने वाला भू-दान था। अमरकोष में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है।

अशोक के अभिलेख

स्तंभ लेख

स्तंभ लेख 7 हैं जो छह विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। अकबर ने कौशांबी स्थित प्रयाग स्तंभ लेख को इलाहाबाद के किले मे स्थापित करवाया। टोपरा तथा मेरठ स्तंभ लेखों को फिरोजशाह तुगलक दिल्ली लाया और स्थापित किया। रामपुरवा, लौरिया (अरेराज) तथा लौरिया नंदनगढ़ स्तंभ लेख चंपारण (बिहार) में है।

लघु स्तंभलेख

अशोक की राजकीय घोषणायें जिन स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें सामान्य तौर पर लघु-स्तंभ लेख कहा जाता है। इलाहाबाद स्तंभ लेख को रानी का लेख भी कहा जाता है। इलाहाबाद स्तंभ लेख में बुद्ध के जन्म स्थान में भू-राजस्व का 1/8 किये जाने का आदेश है। सारनाथ स्तंभ लेख में बौद्ध संघ में भेद रोकने का आदेश है।

गुहा लेख

गया जिले के बराबर पहाड़ी की तीन गुफाआंे में लेख हैं। ये गुफा आजीविक संन्यासियों के लिए बनाये गये थे।

अर्थव्यवस्था

गुप्तकाल में भूमिदान की प्रथा थी। राजा भूमि का मालिक माना जाता था। पश्चिम में सोपरा तथा भड़ौच एवं पूर्व में ताम्रलिप्ति प्रमुख बंदरगाह थे। भूमिकर (भाग), हिरण्य (नगद) अथवा मेय (अनाज का तौल) में दिया जा सकता था। गुप्त शासकों ने सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं (दीनार) जारी किये। गुप्त काल में व्यापार के Ðास के संकेत मिलते हैं। रोम के साथ व्यापार का पतन हो गया। राज्य की आय का दूसरा प्रमुख स्रोत चुंगीकर था।

समाज

समाज में दास प्रथा का प्रचलन था तथा युद्धबंदियों को दास बनाने की प्रथा का प्रचलन था। हूणों को राजपूतों के एक कुल के रूप में स्वीकार्य कर लिया गया था। शुद्रों की स्थिति में सुधार हुआ, अब वे कृषक बन गये थे। अछूतों की संख्या में वृद्धि हुई। न्याय व्यवस्था मे वर्ण भेद बना हुआ था। ब्राह्ममण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि से, वैश्य की जल से तथा शूद्र की परीक्षा विष से करने की बात कही जाती थी। गुप्त काल में प्रथम बार कायस्थ जाति का उल्लेख मिलता है। अग्रहार भूमि सभी करों से मुक्त होती थी। नारद ने दासों के 15 प्रकार बताए हैं साथ ही कहा है कि अपने स्वामी के पुत्रा को जन्म देने के बाद दासी स्वतंत्रा हो जाती थी।

कला एवं साहित्य

कला और सहित्य के विकास के दृष्टि से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है। गुप्तकालीन मंदिर नगर शैली में बने हैं। मंदिरों में गृर्भग्रह तथा शिखर का निर्माण होने लगा था। महत्वपूर्ण मंदिर थे- उदयगिरि का विष्णु मंदिर, एरण के बराह तथा विष्णु के मंदिर, भूमरा का शिवमंदिर, नाचनाकुठार का पार्वती मंदिर तथा देवगढ़ का दशावतार मंदिर। गुप्तकाल का सर्वोत्कृष्ठ मंदिर झांसी जिले में देवगढ़ का दशावतार मंदिर है। सारनाथ में धामेख स्तूप का निर्माण हुआ।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

गणित के क्षेत्रा में इस काल का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है- आर्यभटीय, इसके रचयिता आर्यभट्ट पाटलिपुत्रा के निवासी थे। ईसा की पांचवी सदी के आरंभ में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी। आर्यभट्ट ने सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धूरी पर घूमती है। ब्रह्मगुप्त का ब्रह्म-सिद्धांत खगोलशास्त्रा का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। धन्वन्तरी तथा सुश्रुत इस युग के प्रख्यात वैद्य थे। नवनीतकम इस काल की सबसे प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्रा की पुस्तक है।

धर्म

गुप्त काल में त्रिमूर्ति के अन्तर्गत ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की पूजा आरंभ हुई। अब मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण बन गया। इस काल मे ब्राह्मण धर्म का पुर्नउत्थान हुआ तथा पुरोहितों की अपेक्षा यज्ञों को प्रोत्साहन मिला। इस काल में हरिहर की मूर्तियां बनाई गईं। जिसमें शिव व विष्णु को एक साथ दर्शाया गया।




अध्याय - पुष्यभूति वंश एवं हर्षवर्धन

पूष्यभूति वंश के बारे में जानकारी का स्रोत हैं. बाणभट्ट का हर्षचरितए बांस खेड़ा (628 ई)  एवं मधुबन (631 ई) ताम्रपत्रा अभिलेखए नालंदा एवं सोनीपत ताम्रपत्रा अभिलेखए ह्वेनसांग एवं इतिसंग के यात्रा वृतांत। श्हर्षचरित इस ग्रन्थ का लेखक बाणभट्ट हर्षवर्धन का दरबारी कवि था। ऐतिहासिक विषय पर महाकाव्य लिखने का यह प्रथम सफल प्रयास था। इसके पांचवेंए छठे अध्याय में हर्ष का वर्णन है।

आरंभिक शासक

ह्वेनसांग ने हर्ष को श्फी.शे जाति अर्थात वैश्य बताया है। हर्षचरित में पुष्यभूति वंश की तुलना चंद्र से की गर्इ है। पुष्यभूति वंश का संस्थापक पुष्यभूति था। इस वंश का प्रथम प्रसिद्ध शासक प्रभाकरवर्धन था जो हर्षवर्धन का पिता था। प्रभाकरवर्धन की उपाधि हूणहरिण केशरी तथा गुर्जर प्रजागर थी। उसने हूणों के साथ युद्ध किया था। उसकी राजधानी श्थानेश्वर (हरियाणा के करनाल के पास थानेसर नामक स्थान थी।

हर्षवर्धन (606.647  ई)

हर्षवर्धन ने एक बौद्ध दिवाकरमित्रा के सहायता से अपनी बहन राजश्री को बचाया तथा कन्नौज का शासनभार अपने ऊपर ले लिया। हर्ष ने कन्नौज को राजधानी बनाया और पांच राज्यों.पंजाबए कन्नौजए गौड़ (बंगाल) मिथिला तथा उड़ीसा पर आधिपत्य स्थापित किया। लगभग 620  ई)् में हर्ष का दक्षिण के शासक पुलकेशिन द्वितीय के साथ नर्मदा के तट पर युद्ध हुआ। इसके बाद हर्ष उत्तर भारत तक ही सिमट कर रह गया।

शासन व्यवस्था

हर्ष ने दिन को भागों में बांट दिया था। एक भाग में प्रशासनिकए एक भाग में धार्मिक तथा अन्य में व्यकितक कार्य करता था। राजा की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद होती थी। मंत्री को सचिव या आमात्य कहा जाता था। अधिनस्थ  शासक महाजन अथवा महासामंत कहे जाते थे। संदेशवाहक दिर्घध्वज तथा गुप्तचर सर्वगतरू कहे जाते थे।

14 शिलालखों में उल्लेखित अशोक के निर्देश

  1. प्रथम शिलालेख में पशु हत्या सामाजिक उत्सवों पर प्रतिबंध्ा का उल्लेख है।
  2. द्वितीय में समाज कल्याण का कार्य जैसे मनुष्यों तथा पशुओं के चिकित्साए मार्ग निर्माण आदि का उल्लेख है। इसमें चोलए चेरए पांडयए सत्तियपुत्त तथा ताम्रपर्णि राष्ट्रों का उल्लेख है।
  3. तृतीय में अभिभावकोंए ब्राह्राणोंए श्रमणों के प्रति सम्मानजनक व्यवहारए मितव्यय आदि अच्छे गुणों को अपनाने का उल्लेख है।
  4. चतुर्थ में धम्म का उल्लेख है।
  5. पंचम में धम्म महामांत्रो की नियुकित का उल्लेख है।
  6. षष्ठम में राजा (स्वंय) से किसी भी वक्त मिल सकने की सुविधा का उल्लेख है।
  7. सप्तम में सभी संप्रदायों को सहिष्णुता बनाये रखने का आदेश है।
  8. अष्टम में सम्राट द्वारा आखेट का त्याग कर ध्ार्मयात्राएं आरंभ करने का उल्लेख है।
  9. नवम में रंगारंग समारोह के स्थान पर धम्म समारोह आरंभ करने का आदेश है।
  10.  दशम में ख्याति व गौरव की निंदा तथा धम्म नीति को श्रेष्ठ बताया गया है
  11. ग्यारहवें में धम्म नीति की व्याख्या की गयी है।
  12. बारहवें में पुनरू संप्रदायों के बीच सहिष्णुता बनाये रखने का आदेश है।
  13. तरहवें में कलिंग युद्ध के स्थान पर धम्म विजयए तथा पांच यूनानी राजाए एणिटयाकसए टालमीए एणिटगोनसए मागस तथा अलेक्जेंडर का उल्लेख है। इसमें आटविक जातियों को अशोक की चेतावनी का भी उल्लेख है।
  14. चौदहवें में जनता को धार्मिक जीवन जीने की प्रेरणा दी गयी है।

प्राचीन भारत की प्रसिद्ध पुस्तकें:


गंधार कला (50 ई.पू. - 500 ई.पू.)- इसका दूसरा नाम ग्रीक-बौद्ध शैलीहै। इसके अंतर्गत मूर्तियों में शरीर की आकृति को सर्वथा यथार्थ व पारदर्शी दिखाने का प्रयत्न किया गया। यहां की मूर्तियों में बुद्ध का मुख युनानी देवता अपोलो से मिलता है। ये मूर्तियां विशेष प्रकार के स्लेटी रंग के पत्थरों से निर्मित हैं।
सर्वाधिक बुद्ध मूर्तियों का निर्माण गंधार कला में हुआ।
मथुरा कला (150-300 ई.)- यह देशी कला कंेद्र था, जो जैन धर्मानुयायियों द्वारा मथुरा में प्रथम सदी में आरंभ किया गया। यह आदर्शवादी कला थी। इसे कुषाणों का संरक्षण मिला। मूर्तियां लाल बलुआ पत्थर से बनती थीं। यह कला आदर्शवादी थी। सारनाथ की खड़ी बौद्ध मूर्ति का निर्माण मथुरा में हुआ था।
अमरावती कला (150 ई.पू. - 400 ई.)- इस शैली के अंतर्गत सफेद संगमरमर से मूर्तियांे का निर्माण आरंभ हुआ। सातवाहन राजाओं के संरक्षण में नासिक, भोज, कार्ले मेें निर्मित चैत्यों पर इस शैली का प्रभाव है।

हर्ष कालीन अधिकरी:


गुप्त कालीन अधिकारी:




मध्यकालीन भारत

 

अध्याय - तुर्क आक्रमण
तुर्की आक्रमण भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। तुर्की शासन व्यवस्था जनजातीय संगठन पर आधारित थी। यामिनी वंश का संस्थापक अलप्तगीन था। उसने गजनी को अपनी राजधानी बनाया। अल्पतगीन का पुत्रा सुबुक्तगीन प्रथम तुर्की शासक था जिसने भारत पर आक्रमण किया। सुबुक्तगीन के विजयों से उत्साहित होकर महमूद गजनवी ने 1000 o से 1027 o तक भारत पर 17 बार आक्रमण किया। महमूद का अंतिम आक्रमण 1027 o में जाटों पर हुआ। महमूद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आक्रमण गुजरात में समुद्र तट पर स्थित सोमनाथ (1025 o) पर था। उस समय यहां का शासक भीम प्रथम था।
सल्तनत काल
गौरी वंश का उदय 12 वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। गौरी साम्राज्य का मूल क्षेत्रा उत्तर- पश्चिम अफगानिस्तान था। आंरभ में यह गजनी के अधीन था। गौर वंश प्रधान था। जिसका नाम शंसबनी था। मुहम्मद गौरी इसी वंश का था। मुहम्मद गौरी का प्रथम आक्रमण 1175 o में मुल्तान पर हुआ। उस समय मुल्तान पर करमाथी जाति के मुसलमान शासक थे। 1191 o में हुए तराइन के प्रथम युद्ध में पृथ्वी राज चैहान ने गौरी को परास्त किया किंतु अगले ही वर्ष 1192 o में वह गौरी से पराजित हो गया। तराइन के युद्ध के बाद भारत में तुर्की राज्य की स्थापना हुई। 1193 o से दिल्ली भारत में गौरी की राजनीतिक गतिविधियों का कंेन्द्र थी। 1194 o में मुहम्मद गौरी ने कन्नौज के शासक जयचंद को चंदावर के युद्ध में हराया। 1206 o में गौरी की मृत्यु के बाद ऐबक ने भारत में गुलाम वंश की नींव डाली।
गुलाम वंश
कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है। वह दिल्ली का प्रथम तुर्क शासक था। सिंहासन पर बैठने पर उसने सुल्तान की उपाधि नहीं ग्रहण की। ऐबक ने न अपने नाम का खुतबा पढ़वाया और न ही अपने नाम के सिक्के चलाए। बाद में गौरी के उत्तराधिकारी महमूद ने उसे सुल्तान स्वीकार कर लिया। ऐबक ने प्रसिद्ध सूफी सन्त ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकीके नाम पर दिल्ली में कुतुबमीनार की नींव रखी जिसे इल्तुतमिश ने पूरा किया। 1210 o में चैगान खेलते समय घोड़े से अचानक गिर जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। कुतुबुद्दीन का दामाद व उत्तराधिकारी इल्तुमिश तुर्क था। इल्तुमिश ही दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के समय वह बदायूँ का सूबेदार (गवर्नर) था। मुहम्मद गौरी ने 1206 o में खोखरों के विद्रोह के समय इल्तुमिश की असाधारण योग्यता के कारण उसे दासता से मुक्त कर दिया।
प्रारम्भ में दिल्ली सुल्तानों ने भारत में प्र्रचलित सिक्कों को अपनाया। मुहम्मद गौरी के सिक्कों पर उसका नाम तथा दूसरी ओर देवी लक्ष्मी की आकृति अंकित मिली है। मुहम्मद बिन तुगलक ने मुद्रा सम्बन्धी महत्वपूर्ण प्रयोग किए। एडवर्ड टायस उसे धनवानो का युवराजकहा है। उसने सोने का नया सिक्का चलाया जिसे इब्नबतूता दीनार कहता है। उसने सोने एवं चांदी के सिक्कों के बदले अदली नामक सिक्के जारी किए। जिसका वजन 140 ग्रेन चांदी के बराबर था। फिरोज तुगलक ने अद्धा एवं बिख नामक क्रमशः आधे एवं चैथाई पीतल के तांबा और चांदी मिश्रित दो सिक्के चलाए। तांबे के सिक्कों को सल्तनत काल में दिरहम कहा जाता था।
खिलजी वंश
1290ई. में जलालुद्दीन खिलजी सुल्तान की गद्दी पर बैठा। उसका राज्याभिषेक किलोखरीमें हुआ था। सुल्तान कैकुबाद ने उन्हे शाइस्ता खाँ की उपाधि दी और आरिज-ए-मुमालिक अर्थात् सेना मंत्री का पद दिया। आलऊधीन खिलजी ने 1296-1316 o तक शासन किया। उसने अपने सिक्कों पर स्वयं का नाम द्वितीय सिकंदर’ (सिकंदर-ए-समी) के रूप में उत्कीर्ण कराया। अलाउद्दीन ने गुप्तचर पद्धति को पूर्णतया संगठित किया। इस विभाग का मुख्य अधिकारी वरीद-ए-मुमालिक था। उसके अन्तर्गत अनेक वरीद (संदेशवाहक या हरकारे) थे। अलाउद्दीन द्वारा बनवाया गया अलाई दरवाजा प्रारम्भिक तुर्की कला का एक श्रेष्ठ नमूना माना गया है। 1316ई. में अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी (1316-1323ई.) सुल्तान बना। सुल्तान बनते ही उसने अपने पिता के कठोर आदेशों को रद्द कर दिया। उसने स्वयं को खलीफाघोषित किया तथा उल-वासिक बिल्लाहकी उपाधि धारण की। उसकी मृत्यु के पश्चात् नसिरुद्दीन खुसरवशाहकुछ समय के लिए दिल्ली की गद्दी पर बैठा था।
तुगलक वंश
इस वंश की स्थापना गयासुद्दीन (गाजी मलिक) ने 1320 ईॉ में की। सिंचाई हेतु नहर निर्माण करने वाले गयासुद्दीन पहला शासक था। अलाउद्दीन द्वारा चलायी गई दाग तथा चेहरा प्रथाको प्रभावशाली ढंग तथा उत्साह से लागू किया गया। सर्वप्रथम गयासुद्दीन तुगलक के समय में ही दक्षिण के राज्यों को दिल्ली सल्तनत में मिलाया गया। इसमें सर्वप्रथम वारंगल था। गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद जौना खाँ या मुहम्मद बिन तुगलक’ (1325-1351ई.) सुल्तान बना। उसके समय तुगलक साम्राज्य 23 युक्तों (प्रान्तों) में बंटा था। मुहम्मद तुगलक ने संाकेतिक तांबे व इससे मिश्रित कांसे के सिक्के जारी किए लेकिन यह प्रयोग पूर्णतया असफल रहा। 1351 में मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई फिरोजशाह तुगलक’(1351-1388ई.) सुल्तान बना। फिरोज तुगलक ने हिसार, फिरोजा, फिरोजाबाद (दिल्ली) तथा जौनपुर नामक नये नगर बसाये तथा अनेक नहरें भी बनवायीं। उसने ब्राह्मणों पर भी जजिया कर लगाया। तुगलक वंश का अंतिम शासक नसिरुद्दीनमहमूदथा, जिसके काल में 1398ई. में तुर्क आक्रमणकारी तैमूर लंगने भारत पर आक्रमण किया व दिल्ली को जमकर लूटा।
सैयद वंश
सैय्यद वंश के संस्थापक खिज्र खाँ ने मंगोल आक्रमणकारी तैमूर को सहयोग प्रदान किया था। खिज्र खाँ ने सुल्तान की उपाधि नहीं धारण की। वह रैयत-ए-आला की उपाधि से ही संतुष्ट रहा। अलाउद्दीन आलम शाह (1443-1451 ईॉ) इस वंश का अन्तिम शासक था।
लोदी वंश
सैय्यद वंश के अन्तिम शासक अलाउद्दीन आलम शाह द्वारा दिल्ली का शासन त्याग देने के बाद 1451ई. में बहलोल लोदी’(1451-1489ई.) ने सिंहासन पर अधिकार करके लोदी वंश की स्थापना की। उसने बहलोली सिक्के को चलाया जो अकबर के पहले तक उत्तरी भारत में विनिमय का मुख्य साधन बना रहा। बहलोल लोदी का उत्तराधिकारी सिकन्दर शाह हुआ जो लोदी वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक था। नाप के लिए एक पैमाना गजे सिकन्दरीउसी के समय से प्रारम्भ किया गया जो प्रायः 30 इंच का होता था। सिकन्दर लोदी के स्वयं के आदेश से एक आयुर्वेदिक ग्रन्थका फारसी में अनुवाद किया गया जिसका नाम फरंहगे सिकन्दरीरखा गया। सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्रा इब्राहीम लोदी 1517 ईॉ में गद्दी पर बैठा। उसने राणा सांगा को हराया था। पर 20 अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान में मुगल वंश के संस्थापक बाबर ने उसे हरा दिया। सल्तन कालीन प्रमुख करों के नाम इस प्रकार हैंµ10 जकात (केवल मुस्लिमों से लिया जाता था), 20 जजिया (गैर-मुसलमानों से लिया जाता था), 30 उस्र या सदका (भूमिकर), 40 खराज (गैर-मुसलमानों से लिया जाने वाला भू-राज्स्व), 50 खम्स (युद्ध में लूटा गया धन, जिसका 4/5 सैनिकों में बांटा जात था व केवल 1/5 राजकोष में जमा होता था, लेकिन अलाउद्दीन खिलजी औरा मुॉ तुगलक ने 4/5 राजकोष में जमा कराया और केवल 1/5 सैनिकों में बांटा)।
दिल्ली सल्तनत का प्रशासन
सुल्तानकी उपाधि तुर्की शासकों द्वारा प्रारम्भ की गई। महमूद गजनवी पहला शासक था जिसने सुल्तान की उपाधि धारण की। दिल्ली सुल्तानों में अधिकांश ने अपने को खलीफा का नायब पुकारा परन्तु कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी ने स्वयं को खलीफा घोषित किया।
अर्थव्यवस्था
इस्लामी अर्थव्यवस्था सम्बन्धी सिद्धान्त बगदाद के मुख्य काजी अबूयाकूब द्वारा लिखित किताब उल-खराज में लिपिबद्ध है। राज्य की भूमि चार भागों में विभक्त थी- 10 दान में दी गई भूमि लगान मुक्त (अनुदान भूमि) 20 मुक्तियों अथवा प्रान्तपतियों के अधिकार में (इक्ताभूमि) 30 अधीनस्थ हिन्दू राजाओं के अधिपत्य में। 40 खालसा भूमि। बलवन ने प्रान्तों में सीमित रूप से द्वैत शासन की स्थापना की। सल्तनत काल में भू-राजस्व के मुख्यतः तीन तरीके प्रचलित थे-बंटाईजिसमें वास्तविक उपज में से राज्य के हिस्से का निर्धारण किया जाता था। बंटाई प्रणाली को विभिन्न नामों से जैसे- किस्मत-ए-गल्ला, गल्ला बख्शी अथवा हासिल आदि नामों से पुकारा जाता था। मसाहतइसमें भूमि की पैमाइश के आधार पर उपज का निर्धारण किया जाता था। इस प्रणाली को अलाउद्दीन खिलजी ने प्रचलित किया था। मुक्ताईयह लगान निर्धारण की एक मिश्रित प्रणाली थी। यह हिस्सा बाँटा प्रणाली पर आधारित थी। मुहम्मद गौरी ने भारत में इक्ता प्रथा की शुरुआत की तथा इल्तुतमिश ने उसे ठोस रूप प्रदान किया। कर निर्धारण के तरीकों में अत्यधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन अलाउद्दीन के शासन काल में हुआ। उसने भूमि की वास्तविक माप पर जोर दिया। अलाउद्दीन ने राजस्व बकाया की वसूली के लिए विजारत की एक शाखा स्थापित की जिसे मुस्तखराज कहा जाता था। गयासुद्दीन पहला सुल्तान था जिसने सिंचाई के लिए नहरें खुदवाई। मुहम्मद बिन तुगलक सम्पूर्ण साम्रज्य को एक ही कर व्यवस्था के अन्तर्गत ले आया जो दो-आब में प्रचलित थी। उसने कृषकों का सोनधर या तकूबी (ऋण) प्रदान किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने सम्पूर्ण राज्य की आय-व्यय का लेखा तैयार कराया तथा तीन वर्ष के लिए एक अन्वेषण कृषि फार्म खोला

 

अध्याय - बहमनी साम्राज्य


दक्कन में अमीरान-ए-सदह के विद्रोह के परिणाम स्वरूप मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अन्तिम दिनों में जफर खाँ नामक सरदार अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण करके 347 o में सिंहासनारूढ़ हुआ और बहमनी साम्राज्य की नींव डाली। उसने गुलबर्गा को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया तथा उसका नाम अहसानाबाद रखा। उसने हिन्दुओं से जजिया न लेने का आदेश दिया। अपने शासन के अन्तिम दिनों में बहमनशाह ने दाभोल पर अधिकार किया जो पश्चिम समुद्र तट पर बहमनी साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण बन्दरगाह था।


मुहम्मद शाह प्रथम के शासन में प्रथम बार बारूद का प्रयोग हुआ जिससे रक्षा संगठन में एक नई क्रान्ति पैदा हुई। सेना के सेनानायक को अमीर-ए-उमरा कहा जाता था। उसके नीचे बारवरदान होते थे। 1397 o में ताजुद्दीन फिरोजशाह बहमनी वंश का शासक बना। उसने एशियाई विदेशियों या अफकियो को बहमनी साम्राज्य में आकर स्थायी रूप से बसने के लिए प्रोत्साहित किया। बहमनी में अमीर वर्ग अफ्रीकी और दक्कनी दो गुटों विभाजित हो गया। यह दलबन्दी बहमनी साम्राज्य के पतन और विघटन का मुख्य कारण सिद्ध हुआ। फिरोजशाह बहमनी ने प्रशासन में बड़े स्तर पर हिन्दुओं को सम्मिलित किया। उसने दौलताबाद में एक वेधशाला बनवाई। उसने अकबर के फतेहपुर सीकरी की भाँति भीमा नदी के किनारे फिरोजाबाद नगर की नींव डाली। गुलबर्गा युग के सुल्तानों में यह अन्तिम सुल्तान था। शिहाबुद्दीन महमूदशाह के शासन काल (1482-1518 o) में प्रान्तीय तरफदारों ने अपनी स्वतन्त्राता घोषित करना प्रारम्भ कर दिया और पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत तक बहमनी साम्राज्य खण्डित हो गया। इस वंश का अन्तिम सुल्तान कली मुल्लाशाह था। 1527 o मे उसकी मृत्यु के बाद बहमनी साम्राज्य का अन्त हो गया। इमादशाही और निजामशाही राजवंशों के संस्थापक हिन्दू से इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले दक्कनी लोग थे।

बहमनी साम्राज्य के पतन के पश्चात् बने नये राज्य

सबसे पहले बहमनी साम्राज्य से अलग होने वाला क्षेत्रा बगर था, जिसे फतहउल्ला इमादशाह (हिन्दु से मुस्लमान) ने 1484 o में स्वतन्त्रा घोषित करके इमादशाही वंश की स्थापना की। 1547 o में बरार को अहमद नगर ने हड़प लिया। बीजापुर के सूबेदार यूसुफ अदिल खाँ ने 1489-90 o में बीजापुर को स्वतन्त्रा घोषित करके अदिलशाही वंश की स्थापना की। 1534 o में इब्राहिम अदिल शाह बीजापुर का पहला सुल्तान बना जिसने शाह की उपाधि धारण की व फारसी के स्थान पर हिन्दवी (दक्कनी-उर्दू) को राजभाषा बनाया और हिन्दुओं को अनेक पदों पर नियुक्त किया। इब्राहिम के बाद अली आदिलशाह द्वितीय 1580 o में शासक बना। इसे जगतगुरू की उपाधि प्राप्त हुई। मुहम्मद कुली हैदराबाद नगर का संस्थापक और दक्कनी उर्दू में लिखित प्रथम काव्य संग्रह या दीवान का लेखक था।
उसने उर्दू और तेलगू को समान रूप से संरक्षण प्रदान किया। 1687 में औरंगजेब ने इस राज्य पर अधिकार कर उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। कुतुबशाही साम्राज्य की प्रारम्भिक राजधानी गोलकुण्डा विश्व प्रसिद्ध बन्दरगाह था। अमीर अली वरीद ने बीदर को स्वतन्त्रा घोषित करके वरीद शाही वंश की स्थापना की। इसे दक्कन की लोमड़ी कहा जाता था। बहमनी साम्रज्य से स्वतन्त्रा होने वाले राज्य क्रमशः बरार, बीजापुर, अहमद नगर, गोलकुण्डा तथा बीदर हैं।

विजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल की अल्पावस्था के दौरान हुई। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का ने की थी। हरिहर और बुक्का होयसल राजा वीर बल्लाल तृतीय की सेवा में थे व बाद में कांपिली (आधुनिक कर्नाटक) में राज्य में मंत्री बन गए। जब एक मुसलमान विद्रोही को शरण देने के कारण कंापिली पर मुहम्मद तुगलक ने आक्रमण करके उसे जीत लिया, तो इन दोनों भाइयों को बंदी बनाकर इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया एवं दिल्ली लाया गया।

संगम वंश

हरिहर और बुक्का प्रथम संगम के पुत्रा थे और उन्होंने अपने पिता के नाम पर ही अपने वंश की स्थापना की। अतः 1336 में स्थापित विजय नगर के पहले वंश को संगम वंशकहा जाता है। हरिहर प्रथम ने 1336 से 1356 तक शासन किया और उसके भाई बुक्का प्रथम ने राजकाज में उसकी मदद की। हरिहर प्रथम ने 1352-53 में दो सेनाएं दो राजकुमारों सवन्ना और कुमार कम्पन के नेतृत्व में मदुरा के सुल्तान के विरुद्ध भेजी और उसे विजयनगर में मिला लिया।
1410 में उसने तुंगभद्रा पर बांध बनवाकर अपनी राजधानी विजयनगर तक नहरंे (जलसेतु या जलप्रणाली) निकलवाई। देवराय प्रथम के शासन काल में इतावली यात्री निकोलोकोंटी ने विजय नगर की यात्रा की। देवराय के दरबार में हरविलासम और अन्य ग्रन्थों के रचनाकार प्रसिद्ध तेलगू कवि श्रीनाथ सुशोभित करते थे। इन्होंने अपने राजप्रासाद के मुक्ता सभागारमें प्रसिद्ध व्यक्तियों को सम्मानित किया करता था। 
देवराय द्वितीय 1422 में शासक बना। इसने अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने तथा बहमनियों की बराबरी के लिए उसने सेना में मुसलमानों को भर्ती किया तथा उन्हे जागीरें दी। देवराय द्वितीय के समय में फारसी (ईरानी) राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने विजयनगर की यात्रा की थी।

सालुव वंश

विजयनगर में व्याप्त अराजकता की स्थिति को देखकर साम्राज्य के एक शक्तिशाली सामन्त-शासक नरसिंह सालुव ने 1485 में राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार संगम वंश प्रथम बलापहारके द्वारा उखाड़ फेंक दिया गया। विजयनगर के द्वितीय राजवंश का संस्थापक सालुव नरसिंह था। सालुव नरसिंह ने सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए अरब व्यापारियों को अधिक से अधिक घोड़े आयात करने के लिए प्रलोभन एवं प्रोत्साहन दिया। सालुव नरसिंह ने अपने अल्प व्यस्क पुत्रा के संरक्षण के रूप में नरसा नायक को नियुक्त किया। 1505 में नरसा नायक के पुत्रा वीर नरसिंह ने सालुव नरेश इम्माडि नरसिंह की हत्या करके स्वयं सिंहासन पर अधिकार कर लिया और विजयनगर साम्राज्य के तृतीय या तुलुव राजवंश की स्थापना की।

तुलुव वंश

1509 o में वीर नरसिंह की मृत्यु के बाद उसका अनुज कृष्ण देव राय सिंहासनारूढ़ हुआ।

वह विजयनगर साम्राज्य में महानतम एवं भारत के महानशासकों में से एक था। उसने 1520 o में बीजपुर को पराजित करके सम्पूर्ण रायचूर दोआब पर अधिकार कर लिया। कृष्ण देवराय ने बीदर और गुलबर्गा पर आक्रमण करके बहमनी सुल्तान महमूदशाह को कारागार से मुक्त करके बीदर की राजगद्दी पर आसीन किया। इस उपलब्धि की स्मृति में कृष्ण देवराय ने यवनराज स्थापनाचार्य के विरुद्ध धारण किया। कृष्ण देवराय का पुर्तगालियों से बीजापुर से शत्रुता  तथा घोड़ों की आर्पूर्ति के कारण अच्छे संबंध थे। 1510 o में अलबुकर्क ने फादर लुई को कालीकट के जमेरिन के विरुद्ध युद्ध सम्बन्धी समझौता करने और भटकल में एक कारखाने की स्थापना की अनुमति मांगने के लिए विजयनगर कृष्ण देवराय के दरबार में भेजा। कृष्ण देवराय ने अपने प्रसिद्ध तेलगू आमुक्तमाल्यद में अपने राजनीतिक विचारों और प्रशासनिक नीतियों का विवेचन किया है। उसके दरबार में तेलगू के आठ महान विद्वान एवं कवि सुशोभित थे। अतः उसे आन्ध्र भोज भी कहा जाता है। अष्टदिग्गज तेलगू कवियों में पेड्डना सर्वप्रमुख थे जो संस्कृत एवं तेलगू दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे।

आरवीडु वंश

1571 o में उसने तलुव वंश के अन्तिम शासक सदाशिव को अपदस्थ करके आरवीडु वंश की स्थापना की। 1586 o में वेंकट द्वितीय गद्दी पर बैठा उसने चन्द्रगिरि को अपना मुख्यालय बनाया। कालान्तर में मुख्यालय पेन्कांण्डा स्थानांतरित कर लिया। 1612 o में राजा ओडियार ने उसकी (वेंकट द्वितीय) अनुमति लेकर श्री रंगपट्टनम की सूबेदारी के नष्ट होने पर मैसूर राज्य की स्थापना की।

विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन

अच्युतदेवराय ने अपना राज्याभिषेक तिरूपति मन्दिर में सम्पन्न करवाया था। विजयनगर काल में भी दक्षिण भारत की संयुक्त शासकपरम्परा का निर्वाह किया गया। युवराज की नियुक्ति के बाद उसका राज्याभिषेक किया जाता था जिसे युवराज पट्टाभिषेकम् कहते थे। राज्यपरिषद् के बाद केन्द्र में मंत्रिपरिषद होती थी जिसका प्रमुख अधिकारी प्रधानीया महा प्रधानहोता था। इनकी सभाएं वेंकटविलास पाण्डय नामक सभागार में आयोजित की जाती थी। मन्त्रिापरिषद में सम्भवतः बीस सदस्य होते थे। मन्त्रिापरिषद के अध्यक्ष को सभा नायककहा जाता था। केन्द्र में दण्डनायक नामक उच्च अधिकारी भी होते थे। दण्डनायक पदबोधक नही था वरन् विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को दण्डनायक कहा जाता था। राजा और युवराज के बाद केन्द्र का सबसे बड़ा प्रधान (मुख्य) अधिकारी प्रधानी होता था जिसकी तुलना हम मराठा कालीन पेशवा से कर सकते हैं। विजयनगर काल में भू-राजस्व एवं भू-धारण व्यवस्था बहुत व्यापक थी और भूमि को अनेक श्रेणियों मे विभाजित किया गया था। भूमि मुख्यतः सिंचाई युक्त या सूखी जमीन के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। विजयनगर काल में पूरे साम्रज्य में भू-राजस्व की दरें समान नहीं थी। जैसे - ब्राह्मणों के स्वामित्व वाली भूमि उपज का बीसवां भाग और मन्दिरों की भूमि से उपज का तीसवां भाग लगान के रूप में लिया जाता था। राज्य उपज के छः वंें भाग को भूमि कर के रूप में वसूल करता था। सामाजिक और सामुदायिक करों में विवाह करबहुत रोचक है। यह कर वर और कन्या दोेनों पक्षों से वसूल किया जाता था। शिष्ट नामक कर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। केन्द्रीय राजस्व विभाग को अठावन (अस्थवन या अथवन) कहा जाता था। भूमि-मापक पट्टिकाओं या जरीबों के विभिन्न नाम थे- जैसे- नदनक्कुल राजव्यंदकोल व गंडरायगण्डकोल। भंडारवाद ग्राम ऐसे ग्राम थे जिसकी भूमि राज्य के प्रत्यक्ष नियन्त्राण में होती थी। इन ग्रामों के किसान राज्य को कर देते थे। धार्मिक सेवाओं के बदले में राज्य की ओर से ब्राह्मणों, मठों और मदिरों को दान में दी गई भूमि ब्रह्मदेय, देवदेय, मठापुर भूमि कहलाती थी। यह भूमि कर मुक्त थी। सैनिक एवं असैनिक अधिकारियों को विशेष सेवाओं के बदले जो भू-खण्ड दिये जाते थे ऐसी भूमि को अमरम्कहा जाता था। इसके प्राप्तकर्ता अमरनायककहलाते थे। इस भू-धारण व्यवस्था को नायंकर व्यवस्था कहते थे। उंबति-ग्राम कुछ विशेष सेवाओं के बदले जिन्हंे लगान मुक्त भूमि दी जाती थी ऐसी भूमि को उंबलि कहते थे। युद्ध में शौर्य प्रदर्शित करने वालों या अनुचित रूप से युद्ध में मृत लोगों के परिवार को दी गई भूमि रत्त (खत्त) काडगै कहलाती थी। इस युग में ब्राह्मण, मंदिर और बड़े भू-स्वामी, जो स्वंय खेती नहीं करते थे। ऐसे पट्टे पर दी गई भूमि को कुट्टगि कहा जाता था। कुट्टगि वस्तुतः नकद या जिस के रूप में उपज का अंश था जिसे किसान भू-स्वामी को प्रदान करता था। भू-स्वामी एवं पट्टीदार के मध्य उपज की हिस्सेदारी को वारम व्यवस्था कहते थे। खेती में लगे कृषक मजदूर कुदि कहलाते थे। भूमि के क्रय-विक्रय के साथ उक्त कृषक-मजदूर भी हस्तांतरित हो जाते थे। यदि किसी व्यक्ति की बिना किसी वारिस के मृत्यु हो जाती थी तो ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति का उपयोग सिंचाई के साधनों आदि की मरम्मत के लिए किया जाता था। विजयनगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का स्वर्ण का वराहथा जिसे विदशी यात्रियों ने हूण, परदौसा या पगोडा के रूप में उल्लेख किया है। सोने के छोटे सिक्के को प्रताप तथा फणम् कहा जाता था। चांदी के छोटे सिक्के तार कहलाते थे। विजयनगर का बराह एक बहुत सम्मानित सिक्का था। जिससे सम्पूर्ण भारत तथा विश्व के प्रमुख व्यापारिक नगरों में स्वीकार किया जाता था। वह भारतीय इतिहास का अन्तिम साम्राज्य था जो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित पराम्परिक समाजिक संरचना को सुरक्षित और सम्बन्धित करना अपना कत्र्तव्य समझता था। ब्राह्मणों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे जिसमें सबसे महत्वपूर्ण विशेषधिकार यह था कि उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता था।
कबर ने इस्लामी सिद्धान्त के स्थान पर सुलहकुल की नीति अपनाई। अकबर ने फतेहपुर सीकरी में एक इबादतखानाकी स्थापना 1575 o में करवाया। महदी जारी होने के बाद अकबर ने सुल्तान-ए-आदिल या इमाम-ए-आदिल की उपाधि धारण की। अकबर ने 1582 o में तौहीद-ए-इलाही (दैवीएकेश्वरवाद) या दीन-ए-इलाही नामक एक नया धर्म प्रवर्तित किया। दीन-ए-इलाहीधर्म में दीक्षित शिष्य को चार चरणों अर्थात् चहारगान-ए-इख्लासको पूरा करना होता था। ये चार चरण थे- जमीन, सम्पत्ति, सम्मान व धर्म। अकबर ने झरोखा दर्शनतुलादान, तथा पायबोस जैसी पारसी परम्पराओं को आरम्भ किया। अकबर ने जैन धर्म के आचार्य हरिविजय सूरिको जगतगुरु तथा जिन चन्द्र सूरि को युग प्रधानकी उपाधि दी थी। अकबर हिंदू धर्म से सबसे अधिक प्रभावी था।

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